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पार्श्वनाथ का अन्तर है । फिर भी शनैः शनैः देशविरत श्रावक सर्व चिरत बन जाता है । इस प्रकार धर्म ही समस्त सुखों का दाता है।"
मुनिराज ने ललिताजकुमार का उदाहरण दिया। बोले :
ललितांगकुमार 'श्रीवास' नगरी के नरनाथ नरवाहन के ज्येष्ठ पुत्र थे। वे जैसे शूरवीर, राजनीतिज्ञ और धर्मनिष्ट थे वैसे ही उदारहृदय और परोपकारी थे। ललितांगकुमारका एक मित्र थासज्जन । नाम से वह सज्जन था पर प्रकृति से अत्यन्त दुर्जन था। वह ललितांग को अपने सद्गुणों से विचलित करने का सदैव प्रयत्न किया करता था । वह समझाता-'कुमार, देखो वीरता कभी सत्यानाश कर देगी। भले का नतीजा हमेशा बुरा ही होना है।' कुमार उसका प्रतिवाद करता-वह कहता-कदापि नहीं। भले का नतीजा सला ही होता है।
इस प्रकार दोनों का विवाद चलता रहता था। एक बार कुछ दीन-दुन्बी कुमार के निकट आये। उसे अपनी दुर्गति का हाल सुनाया । कुमार का करणपूर्ण वृदय दयाई हो गया । उसने बहुमूल्य हीरे की अंगठी उतार कर उन्हें दे दी। सज्जन को अच्छा अमर हाथ पाया । उसने जाकर राजा से कह दिया । राजा सप्रमन्न हुश्रा, कुमार को डाटा-पटकारा और भविष्य में ऐसा न करने + कुमार पितभक्त था । उसने पिताकी आज्ञा
कुमार की दानवीरता की चहुँ ओर प्रसिद्धि र फिर मुसीबत में पड़े हुए कुछ लोग कुमार कुमार ने उन्हें कुछ महायता तोदी पर उन्हें चाहान मिला। वे लोग फिर अपनी दीनता
से याचना करने लगे। कुमार का मदुलहत्य .. . . . प्राकृतिक दानवीरता जाग उठी। दमने ल