Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः
३७ उदा०-(कृ) पाचयाञ्चकार । उसने पकवाया। (भू) पाचयाम्बभूव । (अस्) पाचयामास । अर्थ पूर्ववत् है।
सिद्धि-पाचयाञ्चकार आदि पदों की सिद्धि बिभयाञ्चकार' (३।१।३८) के समान है। आम् (निपातनम्)
(७) विदाकुर्वन्त्वित्यन्यतरस्याम्।४१। वि०-विदाकुर्वन्तु क्रियापदम्, इति अव्ययपदम्, अन्यतरस्याम् अव्ययपदम्।
अर्थ:-'विदाङ्कुर्वन्तु' इति पदं विकल्पेन निपात्यते। उदा०-अत्र भवन्तो विदाकुर्वन्तु, विदन्तु वा।
आर्यभाषा-अर्थ-(विदाकुर्वन्तु) विदाकुर्वन्तु (इति) यह पद (अन्यतरस्याम्) विकल्प से निपातित किया जाता है।
उदा०-अत्रभवन्तो विदाकुर्वन्तु, विदन्तु वा । आप लोग जानें।
सिद्धि-विदाकुर्वन्त। विद+लोट् । विद्+आम्+लो। विद्+आम्+0। विदाम्। विदाम्+कृ+लोट् । विदाम्+कृ++उ+झि। विदाम्+कर+उ+अन्ति। विदाम्+कुर्+व्+अन्तु। विदाकुर्वन्तु।
यहां विद ज्ञाने (अदा०प०) धातु से निपातन से लोट्लकार में आम् प्रत्यय है। आम् प्रत्यय से परे निपातन से लोट् का लुक् होता है। आम् प्रत्यय के पश्चात् लोट् में कृ का अनुप्रयोग निपातन से होता है। कुर्वन्तु में बहुवचन में ल के स्थान में झि आदेश है, झोऽन्तः' (७।१।३) से झ् को अन्त आदेश और 'एरः' (३।४।८६) से इ को उकार आदेश होता है। तनादिकृञ्भ्य उ:' (३।११७९) से 'उ' विकरण प्रत्यय है। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (८।३।८४) से कृ को गुण (कर्), 'अत उत् सार्वधातुके से अ को उकार (कुर्) होता है। 'इको यणचिं' (६।१।७४) से उ’ को यण (व्) आदेश होता है।
(२) विदन्तु। विद् ज्ञाने' (अदा०प०)। कुर्वन्तु के सहाय से इस पद को सिद्ध
करें।
विशेष-पण्डित जयादित्य ने काशिकावृत्ति में इस सत्र से इति पद के आश्रय से लोट्लकार सम्बन्धी विदाकरोतु' आदि सभी रूप निपातित स्वीकार किये हैं। यह महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि के मत से प्रतिकूल है।
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