Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अभ्यास को ह्रस्व, 'अभ्यासे चर्च' (८४१५६) से अभ्यास के भू को जश बकार होता है। 'चकार' की सिद्धि पूर्ववत् (३।१।३८) है।
(२) जिहयाञ्चकार । ही लज्जयाम्' (जु०प०)। कुहोश्चुः' (७।४।६२) से अभ्यास के हकार को झकार और उसे 'अभ्यासे चर्च' (८।४।५३) से जश् जकार होता है।
(३) बिभराञ्चकार । डुभृन धारणपोषणयो:' (जु०उ०)। 'भृञामित्' (७।४ १७६) से अभ्यास को इकार आदेश होता है।
(४) जुहवाञ्चकार। 'हु दानादनयोः, आदाने चेत्येके (जु०प०)। कुहोश्चुः' (७/४/६२) से अभ्यास के हकार को झकार और 'अभ्यासे चर्च' (८।४।५३) से जश् जकार होता है।
(५) विकल्प पक्ष में बिभाय आदि पदों में आम् प्रत्यय नहीं है। चकार' पद के समान इनकी सिद्धि करें। कृञ्-अनुप्रयोगः
(६) कृञ् चानुप्रयुज्यते लिटि।४०। प०वि०-कृञ् १।१ च अव्ययपदम्, अनु १।१ (लुप्तप्रथमा) प्रयुज्यते क्रियापदम् लिटि ७१।
अन्वय:-आम् प्रत्ययस्यानु कृञ् च प्रयुज्यते लिटि ।
अर्थ:-आम्-प्रत्ययस्य अनु=पश्चात् कृञ् च प्रयुज्यते, लिटि प्रत्यये परत:।
कृञ् इति प्रत्याहारग्रहणम्। 'कृभ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि च्वि:' (५ ।४ ।५०) इति कृ-प्रभृति ‘कृञो द्वितीयतृतीयशम्बबीजात् कृषौ' (५।४।५८) इत्यस्य अकारपर्यन्तम्। एतेन कृ-भू-अस्तयो गृह्यन्ते, ते चानुप्रयुज्यन्ते।
उदा०-(कृ) पाचयाञ्चकार। (भू) पाचयाम्बभूव। (अस्) पाचयामास ।
आर्यभाषा-अर्थ-(अनु) पूर्वोक्त आम्-प्रत्यय के पश्चात् (कृञ्) कृञ् का (च) भी (प्रयुज्यते) प्रयोग किया जाता है (लिटि) लिट् प्रत्यय परे होने पर।
.यहां कृञ्' एक प्रत्याहार है। यह कृभ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि च्वि:' (५।४।५०) के 'कृ' से लेकर कृञो द्वितीयतृतीयशम्बबीजात कृषौ (५।४।५८) के अकार तक ग्रहण किया जाता है। इस प्रत्याहार से कृ, भू, अस्ति धातुओं का ग्रहण होता है।
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