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चतुर्थ पर्व माधुर्णकविधि प्राप्ता प्राह दम्भोलिघोषजम् । वृत्तं श्रुत्वा खगो दुतं मारीचं प्राहिणोद्विषम्।। स गत्वाशनिघोषस्य जातां दुष्टां खलां गिरम् । निशम्यागत्य निर्वेध सुस्थितामिततेजसे ॥ संमन्व्य मन्त्रिभिः सत्रं तमुच्छेत्तुं समुद्यतः । निजाम्नायसमायातविद्यात्रयं स संददे ॥१७८ भूपाय युद्धवीर्यास्त्रवारणे बंधमोचनम् । रश्मिवेगसुवेगादिसुतैः पञ्चशतैः समम् ॥ १७९ पोदनेशं च संप्रेष्य शत्रोरुपरि ज्यायसा । सहस्ररश्मिना साधं ह्रीमन्तं खचरो गतः॥१८० विद्याछेदनसंयुक्तं महाज्वालाह्वयं परम् । संजयन्ताहिमूले स विद्या साधयितुं स्थितः॥१८१ दुष्टेनाशनिघोषेण श्रुत्वा श्रीविजयागमम् । रश्मिवेगादिभिः शत्रुयुद्धाय प्रेषिताश्च ते ॥१८२ सुघोषः शतघोषोऽथ सहस्रादिसुघोषकः । भूपेन खचरैः सत्रं सर्वे भङ्ग समापिताः ॥ १८३ आसुरेय इमं श्रुत्वा क्रुद्धो युद्धार्थमीयिवान् । युद्धे श्रीविजयोबाणानेनं कतु द्विधामुचत्॥१८४ भ्रामरी विद्यया बाणाद् द्विरूपः सोऽप्यजायत । द्विगुणत्वं गतोऽप्येवं पुनस्तैस्तेन खण्डितः॥ बज्रघोषमयो जातः संग्रामः समगात्तदा । सर्वसाधितविद्योऽसौ रथनूपुरभूपतिः ।। १८६
उनका लाकर अपने नगरमें रक्खा । अर्थात् उनका आदर कर उनके रहनेकी उत्तम व्यवस्था की ॥१७५।। जिसका अतिथिमत्कार किया है ऐसी स्वयंप्रभाने अशनिघोषका सब हाल कहा। सुनकर अमिततेज राजाने अशनिघोषके प्रति अपना मारीचनामक दूत भेजा ॥१७६॥ दूत अशनिघोषके पास गया। परंतु अशनिघोषके मुखसे दुष्ट और कठोर भाषा सुनकर वह लौटकर अमिततेजके पास आ गया उसका सब वचन राजाको सुनाकर सुखसे रहा ।। १७७ ॥ अमिततेज राजाने मंत्रिओंके साथ विचार किया । और उस दुष्ट अशनिघोषका नाश करनेके लिये उद्युक्त हुआ। राजाने श्रीविजयभूपको युद्धवीर्या, अस्त्रवारणा और बंधमोचना ये तीन विद्यायें दी। तथा रश्मिवेग, सुवगादि पांचसौ पुत्रोंके साथ श्रीविजयको शत्रुके ऊपर आक्रमण करनेके लिये भेज दिया। तथा सहस्ररश्मि नामक वडे. पुत्रके साथ अमिततेज विद्याधरेश व्हीमन्त पर्वतपर गया। संजयंतमुनिके पादमूलमें विद्याच्छेदन करनेमें समर्थ महाज्वाला नामकी उत्तम विद्या सिद्ध करनेके लिये अमिततेज विद्याधरेश बैठा ॥ १७८-१८१ ॥ दुष्ट अशनिघोषने श्रीविजयराजाका आगमन सुना और उसने रश्मिवेगादिकोंके साथ लडनेके लिये सुघोष, शतघोष, सहस्रघोषादि पुत्र भेज दिये परंतु राजाने विद्याधरोंके साथ उन सब पुत्रोंका पराजय किया ॥ १८२-१८३ ॥ आसुरीविद्याधरीका पुत्र अशनिघोषने यह वार्ता सुनी वह क्रुद्ध हुआ और लडनेके लिये निकला । युद्धमें श्रीविजयने अशनिघोषके दो तुकडे करनेके लिये बाण छोडे। परंतु भ्रामरी विद्याके प्रभावसे एक अशनिघोषने दो रूप धारण किये । द्विगुण हुए अशनिघोषपर राजाने पुनः बाण छोडकर उसको खंडित कर दिया । पुनः वह द्विगुण हुआ इस तरह द्विगुण होते होते सब रणस्थल अशनिघोषमय हुआ । इतनेमें सर्व विद्याओंको सिद्ध करके रथनूपुरका राजा अमिततेज लडने के लिये आया ॥१८४-१८६।।
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