Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 467
________________ पाण्डवपुराणम् तदा. सर्वे नृपास्त्यक्त्वा रण तत्पार्श्वमाययुः । पाण्डवास्तत्पदं नत्वा रुरुदुर्दुःखसंगताः ॥२५१ आजन्म ब्रह्मचय च पालितं व्रतमुत्तमम् । त्वया गुणगणेशेन तदेत्याहुः सुपाण्डवाः ॥२५२ युधिष्ठिरस्तदाकोचो व्रतिन् सुव्रतोत्तम । अस्माकं किं न चायाता मृतिः किं ते समागता ॥ स बाणजर्जरोज्वोचत्कौरवान्पाण्डवान्प्रति । ददध्वं भव्यजीवानामभयं भव्यसत्तमाः ॥२५४ . अन्योन्यं च कुरुध्वं भो मैत्र्यं मुक्त्वा च शत्रुताम् । __ अहो एवं गता घस्रा भवतां न च निश्चितम् ॥२५५ ये केत्र मृतिमापन्नास्ते गता गर्हितां गतिम् । इदानीं क्रियतां धर्मो दशलक्षणलक्षितः ॥ एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तौ चारणौ चरणोज्ज्वलौ । गुणचुञ्चू चरन्तौ च सुतपोत्र नभोऽङ्गणात्॥ मुनीन्द्रौ हंसपरमहंसौ संशुद्धमानसौ । गाङ्गेयसनिधि गत्वा पोचतुः परमोदयौ ॥२५८ गाङ्गेय त्वं महावीरो वीराणामग्रणीः पुनः । त्वां विनान्यो महाधीरो विद्यते न महीतले ॥ तन्निशम्य मुनीन्द्रौ तौ नत्वा प्रोवाच सद्राि । गाङ्गेयो गणनातीतगुणो गम्भीरमानसः ।। उस समय रण छोडकर सर्व राजा ( दोनो पक्षोंके ) आचार्यके पास आगये । पाण्डव उनके चरणोंको वन्दन कर दुःखसे व्याकुल होकर रोने लगे । “ हे आचार्य, आप गुणोंके समूहके स्वामी हैं, आपने आजन्म उत्तम व्रतरूप ब्रह्मचर्य पाला है । हे तात, आप व्रत धारण करनेवालोंमें उत्तम व्रती हैं। हमको मरण क्यों नहीं आया, आपको वह क्यों प्राप्त हुआ ? " ऐसा युधिष्ठिरने कहा ॥ २५१-२५३ ॥ बाणोंसे जर्जर होकर भी वे आचार्य पाण्डव और कौरवोंको ऐसा उपदेश देने लगे । “ हे श्रेष्ठ भव्यों, तुम सब भव्यजीवोंको अभय-दान दो। शत्रुता छोडकर अन्योन्यमें मैत्री-भाव धारण करो। तुम लोगोंके ये दिन ऐसे ही मैत्री के विना नष्ट हुए। कुछ मैत्री-भाव निश्चित नहीं हुआ । इस युद्धमें जो जो लोग मर गये उनको निंद्य गति प्राप्त हुई । अब उत्तम क्षमादिलक्षण स्वरूप दस धर्मोका पालन करो।" इस प्रसंगमें जिनका चारित्र उज्ज्वल है, जो गुणोंमें निपुण है अर्थात् सुगुणों के धारक हैं ऐसे सुतपश्चरण करनेवाले दो हंस, परमहंस नामक चारण-मुनिवर्य आकाशसे उतरकर भीष्माचार्यके सन्निध आये, जिनका मन अत्यंत निर्मल है और जिनकी आत्मोन्नति उच्च कोटिकी है ऐसे वे भीष्माचार्यको ऐसा उपदेश देने लगे ॥ २५४-२५८ ॥ " हे गांगेय, तुम महावीर तो हो ही, परंतु पुनः वीरों के अगुआभी हो । तुम्हें छोडकर इस भूतलमें दूसरा महाधीर पुरुष नहीं है " । मुनीश्वरोंका वह भाषण सुनकर उन दोनों मुनीन्द्रोंको नमस्कार कर मधुर वाणीसे अगणित गुणों के धारक और गंभीर मनवाले भीष्म स सुव्रतोन्नत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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