Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

Previous | Next

Page 481
________________ ४२६ पाण्डवपुराणम् सुतास्ते पाण्डवा विष्णुरश्वत्थामाविशेषतः । न भेदो विद्यते तात तैयुद्धं कि समुच्यताम् ॥ जनकात्मजयोयुद्धं शोभते किं दुरावहम् । मार्यते केवलं वैरी रणेऽतस्त्वं निवर्तय ॥१२७ निवृत्तो लजितो द्रोणः पार्थो हन्ति पराभरान् । एको मतगजान्सिहो यथा विक्रमसंक्रमः॥ गर्जन्गाण्डीवनादेन प्रलयाब्धिरिवापरः । विभेद कौरवं सैन्यं पार्थः संत्रासयन्परान् ॥१२९ केचिदचुस्तदा भूपाः पार्थो द्रोणेन प्रेषितः । प्रविष्टोऽनर्थसंघातं करिष्यति न चान्यथा॥१३० श्रुत्वा शतायुधः क्रोधादुरोध हरिशक्रजौ । ताभ्यां तस्य स्थाग्छिना वाजिनो गजराजयः॥ तदा शतायुधश्चित्ते ध्यायति स्मेति निश्चलः । सामान्यास्त्रेण दुःसाध्यौ प्रसिद्धौ वैरिणाविमौ ॥ शतायुधस्तदा चित्ते सस्मार परमां गदाम् । सा स्मृता तत्करे चायादासीवायोधने परे ॥१३३ पार्थ बभाण वैकुण्ठस्तव कार्य न चेक्ष्यते । सिद्धितां गतमत्यर्थ संदिग्धं च प्रवर्तते ॥१३४ हन्म्यहं पार्थ विज्ञानाद्वैरिणं निश्चलो भव । वैरिणं पुनराह स्म माधवः सुशतायुधम् ॥१३५ गदां मुश्च रणेनालं विलम्ब कुरुषे च किम् । निशम्य शत्रुणा चित्ते चिन्तितं चलचेतसा ॥ नहीं है। इस लिये उनके साथ हे तात, आपका युद्ध कैसा ? कहियेगा जनक और आत्मजका युद्ध अर्थात् पिता और पुत्रका दुःखदायक युद्ध क्या शोभा पाता है ? हमको सिर्फ वैरीको रणमें मारना है इस लिये आप युद्धसे लौट जाइये" ॥ १२३-१२७ ।। लज्जित होकर द्रोण युद्धसे निवृत्त हुए। जैसे पराक्रमयुक्त एकही सिंह हाथीको मारता है वैसे पराक्रमका आवेश धारण करनेवाले अर्जुनने अनेक शत्रुओंको मार डाला । गाण्डीवकी ध्वनिसे प्रलयसागरकी गर्जनाके समान गर्जना करनेवाला अर्जुन शत्रुओंको डराता हुआ कौरवोंके सैन्यको भेदने लगा ॥१२८-१२९॥ उस समय कोई राजा कहने लगे, कि पार्थको द्रोणाचार्यहीने भेज दिया है अर्थात् उसके साथ युद्ध न करके उसे अपने सैन्यमें घुसाया है। अब वह अनेक अनर्थ करेगा, यह हमारा कहना मिथ्या नहीं होगा ।। १३०॥ [ शतायुधकी गदासे शतायुधकाही विनाश ] शतायुधराजाने उपयुक्त वचन सुनकर क्रोधसे हरि तथा अर्जुनको रोक लिया। उन दोनोंने शतायुधके रथ, घोडे और हाथियोंके समूह नष्ट किये । तब शतायुधने अपने मनमें इस प्रकार निश्चित विचार किया कि सामान्य अवसे ये नरनारायण प्रसिध्द वैरी दुःसाध्य है। शतायुधने उस समय उत्तम दैवी गदाका स्मरण किया। स्मरण करनेपर वह दासीके समान उस युध्दमें उसके हाथमें आई ॥१३१-१३३ ॥ अर्जुनको वैकुण्ठ कहने लगे कि 'हे अर्जुन तेरा कार्य सिध्दिको प्राप्त होगा ऐसा नहीं दिखता। तेरे कार्यकी सिध्दिमें अतिशय संशय है। हे अर्जुन मैं अब विज्ञानसे अर्थात् युक्तिसे वैरीको मारूंगा तु निश्चल हो । निश्चित ठहर ।' शतायुध शत्रुको कृष्णने कहा “ तुझे युध्द करनेकी आवश्यकता नहीं तू गदा छोड दे तेरा कार्य सिध्द होता है। तूं विलंब क्यों करता है ? ” कृष्णका भाषण सुनकर चंचल चित्तवाले शत्रुने मनमें विचार किया, कि " कलहके कारणरूप ऐसे ये नर और नारायण इस गदाके द्वारा नष्ट हो जाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576