Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

Previous | Next

Page 535
________________ पाण्डवपुराणम् सोमदचो विलोक्याशु तं मुनि स्वगृहागतम् । प्रतिजग्राह तं नत्वोच्चदेशस्थं व्यधाद्गुरुम् ।। पादौ प्रक्षाल्य नीरेण गुरोः स वाडवोऽप्यटन् । कार्यायादात्सुदानस्य शिक्षा नागश्रियै मुदा।। वधूः सिद्धानसद्दानं देह्यस्मै दीनदेहिने । मुनये समुपायाशु सुकृतं नवधाश्रितम् ॥१०० मिथ्यात्वमद्यमोहेन मदोन्मत्ता क्रुधाकुला । अचिन्तयभिजे चिचे सा दुश्चिन्ताशताकुला ॥ अहो कोऽयं मुनिर्ननः किं दानमननाशकम् । किं देयं को विधिः सर्वकार्यकृन्तनसाधकः ॥ नने दानात्फलं किं स्यादिति कोपेन कम्पिनी । व्यचिक्षिपद्विषंधान्ये सा नागी गरलं यथा।। जुबुद्धया न जानाति श्वश्रूस्तद्विषमिश्रणम् । केवलं पात्रदानेन सा तदा पुण्यमार्जयत् ।। विषेण विषमो व्याधिर्ववृधे विधिवत्क्षणात् । मुनिदेहे च वर्षायां वल्लीवृन्दं निरङ्कुशम् ॥१०५ ज्ञात्वा योगी विषं देहे धर्मध्यानं दधौ हृदि । सावधानं सुसंन्यस्य चचार परमं तपः॥ ........ उनको नमस्कार करके उनका स्वीकार किया और उन गुरुको उच्चासनपर उसने बैठाया। उसने उन गुरुके चरण जलसे धोये और कुछ कार्यके लिये जाते हुए उसने नागश्रीको आनंदसे दान देनेके लिये उपदेश दिया। वह उसे कहने लगा, कि हे प्रिये, नवधा भक्तिके आश्रयसे पुण्य प्राप्त कर इस तेजस्वी शरीरवाले मुनीश्वरको तू शीघ्र आहार दे। परंतु मिथ्यात्वरूपी मद्यके मोहसे मदोन्मत्त हुई। क्रोधाविष्ट वह नागश्री सैंकडो दुष्ट चिन्ताओंसे व्याकुल होकर अपने मनमें चिन्ता करने लगी। ६" अहो क्या कोई नग्न मुनि हो सकता है ? जो अन्नका नाशक है वह दान कैसे ? ऐसे नमको क्या अन्न देना योग्य होगा? और यह सब दानविधि कार्यको नष्ट करनेका साधक है । नग्नको दान देनेसे क्या फल होगा इत्यादि विचारसे वह कोपित होकर कांपने लगी। जैसे सर्पिणी विषक्षेपण करती है वैसे उसने धान्यमें अर्थात् अन्नमें विष डाल दिया ॥ ९७-१०३ ।। सास तो सरलबुद्धिवाली थी इसलिये अन्नमें मिश्रण किया हुआ विष उसे मालूम नहीं हुआ। परंतु सिर्फ पात्रदानके परिणामोंसे सासको पुण्यकी प्राप्ति हुई ॥ १०४ ॥ जैसे वर्षाकालमें विपुल वल्लिओंका समूह निरंकुशतया बढता है वैसे मुनिके देहमें विषसे तत्काल विषम रोग बढने लगा। मुनीश्वरने अपने देहमें विष-प्रवेश हुआ ऐसा जानकर हृदयमें धर्मध्यान धारण किया। सावधान होकर शरीर, कषाय और आहारका त्याग कर उनका ममत्व छोडकर उत्तम तप धारण किया। विशुद्ध बुद्धिसे युक्त होकर अर्थात् आत्मस्वरूपके ज्ञानमें तत्पर होकर चार प्रकारकी आराधनाओंकी-सम्यग्दर्शनाराधना सम्यग्ज्ञानाराधना, सम्यक्चारित्राराधना और तपआराधनाओंकी आराधना करके मुनीश्वरने प्राणोंका त्याग किया और सर्वार्थसिद्धि नामक अनुत्तरके विमानमें जा विराजे ॥ १०५-१०७ ॥ . [ सोमदत्तादिक तीनो मुनिओंका अच्युत स्वर्ग में जन्म ] भव्योंमें श्रेष्ठ ऐसे सोमदत्तादिक तीनो भ्राता नागश्रीके किये हुए दोषको जानकर, संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त हुए । वरुणगुरु के पास जाकर उन्होंने उन्हें वंदन किया। सदाचारको अपनानेवाले वे ब्राह्मण उत्तम चारित्रके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576