Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 551
________________ ४९६ पाण्डवपुराणम् पाष्टमादिभेदेन क्षपणां क्षपणोधताः । कर्मणां चक्रिरे नित्यमनाश्वन्तो नरोपमाः ॥२७ मात्रिंशकवला नृणामाहारो गदितो जिनः । तन्न्यूनतावमोदर्य दधुस्ते देहदाहका: ।।२८ बत्मकवेश्मवीध्यादिप्रतिज्ञा याशनेच्छया । सुवृत्तिपरिसंख्यानं कुर्वन्तो भोजनं व्यधुः ॥ निर्विकृत्या रसत्यागकाञ्जिकाभेन पारणाम् । कुर्वाणाध रसत्यागं तपस्तेपुर्मुनीश्वरा ॥३० शून्यागारे गुहायां च वने पितृवने तथा । निःकुटे कोटरे भूभ्रे निर्जने जन्तुवर्जिते ॥३१ भयदे भयसंत्यताः सिंहा इव समुद्धराः । कुर्वाणाः संस्थितिं भेजुर्विविक्तशयनासनाः ॥३२ चत्वरादिषु देशेषु ममत्वं वपुषः परम् । हित्वा ते संदधुर्भठ्याः कायक्लेशाभिधं तपः ॥३३ बाह्यं तपश्चरन्तस्ते षडिधं वधवर्जिताः । विविध विविधोपायैस्तस्थुस्ते पर्वतादिषु ॥३४ ।। आलोचनादिभेदेन प्रायश्चित्वं व्यधुर्मुदा । दशधा चिद्विशुद्धयर्थं प्रवशुद्धयर्थमाभु ते ॥३५ चतुर्धा विनयं तेनुर्दर्शनज्ञानगोचरम् । मुनयः पाण्डवाः प्रीताश्चारित्रं चौपचारिकम् ॥३६ आचार्यादिप्रभेदेन वैयावृत्त्यं विशुद्धिकृत् । दशधा ते चरन्ति स्म चारित्राचरणोधताः ॥३७ [पाण्डवोंका दुर्धर तपश्चरण ] षष्ठ-दो उपवास, अष्टम-तीन उपवास, आदि शब्दसे दशम चार उपवास, द्वादश-पांच उपवास इत्यादि उपवास करनेमें उद्युक्त निराहारी वे श्रेष्ठ पुरुष हमेशा कर्मोका क्षय करने लगे। जिनेश्वरोंने बत्तीस घास प्रमाण आहार पुरुषोंका कहा है। परंतु देहको दग्ध करनेवाले-देहको सुखानेवाले पाण्डवोंने बत्तीस ग्राससे न्यून अर्थात् एकत्तीस, तीस, उनत्तीस घासोंसे लेकर एक ग्रास तक आहार लेनेका अवमोदर्य तप किया । एक मार्ग, एक घर, एक गली इत्यादिकहीमें मैं आहार ग्रहण करूंगा ऐसी आहारकी इच्छासे प्रतिज्ञा करना उसे वृत्तिपरिसंख्यान कहते हैं। ऐसा वृत्तिपरिसंख्यान तप करते हुए वे भोजन करते थे। जिससे जिह्वा और मन विकृत होते हैं ऐसा जो आहार उसको छोडकर वे मुनिराज, नीरस आहार लेते थे गुड घी आदिक रसोंका त्याग कर आहार लेते थे। तथा कांजिकानसे पारणा करते थे । इस प्रकार रसपरित्याग तप उन्होंने किया। शून्यागारमें-जिनका कोई स्वामी नहीं है ऐसे मकान, गुहाश्मशान, तथा उपवन, वृक्षोंकी कोटर, पर्वत इत्यादि निर्जन और जन्तुरहित तथा भीतिदायक स्थानमें सिंहके समान निर्भय और धैर्यवान् वे पाण्डव मुनि एकान्त स्थानमें शयनासन तप करते हुए रहने लगे। मैदान, पर्वतका शिखर और नदीका तट इत्यादि स्थानोंमें शरीरपर स्नेह छोडकर उन भव्योंने कायक्लेश नामक तप धारण किया। विविध उपायोंसे विविध छह प्रकारोंका बाह्य तप करनेवाले हिंसावर्जित पूर्ण अहिंसक मुनिराज पर्वतादिकोंपर रहने लगे ॥२५-३४ ॥ जिसके आलोचनादि दस भेद हैं ऐसा प्रायश्चित्त नामक तप आत्मशुद्धि तथा व्रतशुद्धिके लिये वे शीघ्र करते थे । ज्ञान विनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय ऐमा चार प्रकारका विनयतप स्नेहयुक्त पाण्डव मुनि करते थें । आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, साधु, ग्लान, गण, कुल, संघ और मनोज्ञ ऐसे दस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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