Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 558
________________ पञ्चविशं पर्व ५०३ अहं देहात्मकोऽस्मीति मतिं चेतसि मा कृथाः। निचोलसदृशो देहोऽसिसमस्त्वं च मध्यगः ।। सर्वतो भिन्न एवासि संघक्सवित्तिवृत्तिमान् । कर्मातीतः शिवाकारस्त्वमाकारपरिच्युतः ॥९५ ___अन्यत्वानुप्रेक्षा। मांसास्थ्यसृपये देहे शकृत्प्रस्रावपूरिते । मेदश्चर्मकचावासे चेतः किं तत्र रज्यसे ॥९६ . यद्योगाच्चन्दनादीनां मेध्यानामप्यमेध्यता । शुक्रशोणितसंभूते तत्र का रतिरुत्तमा ॥९७ सर्वाशुचिविनिर्मुक्तं सर्वदेहपरिच्युतम् । ज्ञानरूपं निराकारं चिद्रपं भज सर्वदा ॥९८ . अशुचित्वानुप्रेक्षा । अब्धौ सच्छिद्रनावीव भवेद्वार्यागमस्तथा । कर्मास्रवो भवाब्धौ स्यान्मिथ्यात्वादेश्च देहिनाम् । पश्चमिथ्यात्वतो जन्तोादशाविरतेर्भवेत् । पञ्चवर्गकषायाच्चास्रवत्रिपञ्चयोगतः ॥ १०० आस्रवादाम्यति प्राणी संसृतावन्धिकाष्ठवत् । अतः सर्वास्रवत्यक्तं चिद्रूपं शाश्वतं भज ॥१०१ - आखवानुप्रेक्षा। ऐसी मनमें बुद्धि मत कर । यह तेरा देह कोशके समान है और उसके बीच में रहनेवाला तू खनके समान है। हे आत्मन्, तू देहसे सर्वथा भिन्न है। तू सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी और चारित्रधारी है। तू कर्मोस भिन्न है तथा शिवाकार है अर्थात् चरम-शरीरसे कुछ कम तेरे आत्मप्रदेशोंकी आकृति है और तू आकाररहित-अमूर्त हैं । ९३-९५॥ __[अशुचित्वानुप्रेक्षा ] यह देह मांस, हड्डी, और रक्तसे भरा हुआ है, विष्ठा और मूत्रसे भरा हुआ है। मेद, चर्म और केशोंका घर है । हे मन ! तू इसमें आसक्त हुआ है। चन्दन, कस्तूरी आदिक पदार्थ पवित्र हैं, परंतु इस देहका संबंध होनेसे वेभी अपवित्र होते हैं। शुक्र और रक्तसे उत्पन्न हुए इस शरीरमें आसक्त होना क्या श्रेष्ठ है ? अर्थात् घृणा उत्पन्न करनेवाले देहमें आयक्त होना लज्जास्पद है। हे मन, आत्मा सर्व प्रकारके अशुचि पदार्थोसे रहित हैं। सर्व-देहोंसे औदारिक, वैक्रियिक, तैजस, आहारक और कार्माण ऐसे पांच देहोंसे रहित है। यह आत्मा ज्ञानरूप, निराकार, तथा चैतन्यमय है उसीका तू आश्रय कर ॥ ९६-९८ ॥ [आस्रवानुप्रेक्षा ) समुद्रमें छिद्रसहित नौकामें जैसे पानीका प्रवेश होता है वैसे संसारसमुद्रमें प्राणियोंमें मिथ्यात्व, अविरति, कषाय आदि परिणामोंसे कर्मागमन होता है। पांच प्रकारके मिथ्यात्व, बारा अविरति, पंचीस कषाय और पन्द्रह योग ऐसे कर्मोका आगमन होनेके कारण. सत्तावन हैं । इनसे जीवोंमें कर्मका प्रवेश होता है। समुद्रमें पडी हुई लकडी जैसे भ्रमण करती है, वैसे यह जीव संसारमें इन मिथ्यात्वादिकोंसे भ्रमण करता है। इस लिये अविनाशी, संपूर्ण आस्रवोंसे रहित जो चिद्रूप है, उसे हे आत्मन् , तू भज । उसकी उपासना कर ॥ ९९-१०१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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