Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 557
________________ पाण्डवपुराणम् विनैकं शुद्धचिद्रूपं कालागम्यमनश्वरम् । शरणं देहिनां नैव किंचिन्मोहितचेतसां ॥ ८६ अशरणानुप्रेक्षा । संसारः पश्वधा प्रोक्तो द्रव्यं क्षेत्रं तथा परः । कालो भवस्तथा प्रोक्तः पञ्चमो भावसंज्ञकः ॥ परावृत्तानि जीवेन कृतानि पञ्च संसृतौ । अनन्तानि च तेषां त्वेकस्य कालोऽप्यनेकशः॥८८ किं रज्यसि वृथा जन्तो संसृतौ शुभलाभतः । स्थिरीभव स्वचिद्रूपेऽन्यथा चेत्संसृतिभ्रमः ॥ संसारानुप्रेक्षा । जनने मरणे लाभे सुखे दुःखे हितेऽहिते । एकोऽसि संस्रुतौ जन्तो भ्रमन्भिन्नास्तु बान्धवाः ॥ कर्ता त्वं कर्मणामेको भोक्ता त्वं कर्मणः फलम् । अङ्गं मोक्ता च किं मुक्तौ यतसे नात्मसंस्थितौ ॥९१ एकस्मिन्नेव चिद्रूपे रुपातीते निरञ्जने । स्वाधीने कर्मभिने च सातरूपे स्थिरीभव || ९२ एकत्वानुप्रेक्षा । कर्म भिन्नं क्रिया भिन्ना भिन्नो देहस्तथा परे। विषया इन्द्रियाद्यर्थी मात्राद्याः स्वकीयाः किमु । ऐसे प्राणियों को इन संसारमें कोई भी रक्षक नहीं हैं ॥ ८१-८६ ॥ [ संसारानुप्रेक्षा ] चतुर्गतिमें भ्रमण करना संसार है । संसारके द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भावसंसार और भवसंसार ऐसे पांच भेद हैं । इस जीवने पांचो संसारोंमें अनंत परावर्तन किये हैं । उनमें एकका कालभी अनेक अर्थात् अनंत है । हे जीव, इस संसार में शुभ लाभ होने से व्यर्थ क्यों अनुरक्त हो रहा है ? हे आत्मन्, तू अपने चैतन्यस्वरूपमें स्थिर हो अन्यथा तुझे संसार में भ्रमण करना पडेगा ।। ८७-८९ ।। [ एकत्वानुप्रेक्षा ) हे आत्मन्, जन्म, मरण, लाभ, सुख, दुःख, हित और अदितमें तू अकेलाही है। इस संसार में तूं अकेलाही भ्रमण करता है । सब बांधव तुझसे भिन्न हैं । हे आत्मन् तूही नाना प्रकारके ज्ञानावरणादि कमका कर्ता है और तूही उनसे प्राप्त होनेवाले फलोंका भोक्ता है । तथा हे आत्मन्, तूही कर्मो का नाश करके मुक्त होनेवाला है, इस लिये हे आत्मन्, शुद्ध स्वरूपकी मुक्ति के लिये तू क्यों नहीं प्रयत्न करता है ? हे आत्मन्, यह तेरा चिद्रूप रूपातीत-अमूर्तिक, कर्मलेपरहित, और स्वाधीन है तथा कर्मोसे भिन्न है । इस सुखरूप एक चिद्रूपमें तू स्थिर हो ।। ९०-९२ ।। [ अन्यत्वानुप्रेक्षा ] हे आत्मन्, तुझसे कर्म भिन्न है और मनोवचनकाय योगोंकी क्रिया भिन्न है | यह तेरा देहभी तुझसे भिन्न है । इन्द्रियोंके भोग्य पदार्थ अर्थात् विषय तुझसे भिन्न हैं । इस लिये हे आत्मन् ! माता, पिता, भ्राता आदिक स्वकीय कैसे होंगे ? हे आत्मन्, मैं देहात्मक हूं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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