Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 565
________________ पाण्डवपुराणम् भिल्लो विन्ध्यनगे वणिग्वरगुणश्चेभ्यादिकेतुः सुरैः चिन्तायांतिखगेण्महेन्द्रसुमना भूपोऽपरादिर्जितः । सोऽव्यादच्युतनायको नरपतिः स्वादिप्रतिष्ठोऽप्यहमिन्द्रो यश्च जयन्तके नरनुतो नेमीश्वरो वः प्रभुः ॥१५२ येऽभूवन्परमोदया द्विजवरा विद्वजनैः संस्तुताः तप्त्वा तीव्रतपो विशुद्धमनसा नाकेऽच्युते निर्जराः । संजाता वृषपुत्रभीमसुरराद्पुत्राश्च मद्रीसुती याता मोक्षपदं त्रयश्च दिविजौ जातो श्रिये सन्तु ते ॥१५३ नेमिः शं वो दिशतु दुरितं दीर्णभावं विधाय दीप्यद्देवो दलितदवथुर्द पैदावामिकन्दः । मन्दस्कन्दो द्रुततरदमो दिव्यचक्षुर्दवीयः कीर्तिदाता दममयमहादेहदीप्तिः प्रदर्शी ॥१५४ ।। [नेमिप्रभुके पूर्वभवोंका कथन ] पहिले भत्रमें विन्ध्यपर्वतपर भिल्ल हुए, दूसरे भवमें इभ्यकेतु नामक श्रेष्ठी, तीसरे भवमें स्वर्ग में देव, चौथे भत्रमें चिन्तागति नामक विद्याधर, पांचवे भवमें माहेन्द्र स्वर्गमें देव, छट्टे भवमें अपराजित राजा, · सातवे भवमें अच्युतेन्द्र, आठवे भवमें सुप्रतिष्ठ राजा, नौवे भवमें जयन्त अनुत्तरमें अहमिन्द और दसवे भवमें सर्व मनुष्योंसे प्रशंसनीय नेमिजिन दुए। वे तुम्हारे प्रभु हैं ॥ १५२ ॥ [पाण्डव-भवकथन ] जो उत्तम उन्नतिके धारक विद्वानोंसे प्रशंसायोग्य ऐसे श्रेष्ठ ब्राम्हण हुए। निर्मल मनसे तीव्र तप करके जो अच्युतस्वर्गमें सामानिक देव हुए। तदनंतर वहांसे च्युत होकर क्रमसे धर्मपुत्र (युधिष्ठिर ), भीम, सुरराट्पुत्र-इन्द्रपुत्र अर्जुन, और मद्रीसुत-नकुल और सहदेव ऐसे पांच पाण्डव हुए। इनमें तीनोंको कुन्तीके पुत्रोंको मोक्षपद प्राप्त हुआ और नकुल सहदेव सार्वार्थसिद्धिमें देव हुए । वे आपको लक्ष्मी प्रदान करें ।। १५३ ।। (नेमिप्रभुको पाप विनाशार्थ प्रार्थना ] जो प्रकाशमान भामंडलके धारक तीर्थकर हैं, जिन्होंने कर्मसंताप दूर किया है। जो मदनरूपी दावानलको शांत करने के लिये मेघके समान है । जिन्होंने अज्ञानका नाश किया। और अतिशय शीघ्र दम-जितेन्द्रियता धारण की । जो दिव्यचक्षुके-केवलज्ञानके धारक हैं। जिनकी कीर्ति दूर फैली है । जो भव्योंको अभयदान देते हैं अर्थात् दिव्यध्वनिके द्वारा हितोपदेश देते हैं। जितेन्द्रियस्वरूप और महाकान्तियुक्त देहके धारक और केवलदर्शनसे । सर्व लोगोंको देखते थे वे प्रभु नेमिनाथ पापको विदीर्ण करके आपको सुख देवें ॥१५४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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