Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

Previous | Next

Page 544
________________ मण्ड मण्डिता भूपा मण्डनैर्महावृताः । समाहताः समायातास्वपुर्विधान्तराचदा ॥५९ haatree त्रधारिण्या ते समानते। मन्डपे वीक्ष्य भूपालच्चातिस्मृतिमवापतुः ॥ स्मृत्वा ते प्राग्भवं पित्रोः कथयित्वा निजान्भवान्छ । निवर्त्य सर्वभूपाला जग्मतुस्ते वनं घनम् ।।६१ ज्ञानसागरनामानं मुनिं नत्वा सुसंयमम् । ययाचाते यतः स्त्रीणां खीत्वं नैव प्रजायते ।। ६२ प्रात्राजिष्टां ततस्ते द्वे संचरन्त्याविहागते । इति तद्वचनं श्रुत्वा व्यरंसीत्सुकुमारिका ॥६३ अहो इमे महाभाग्ये महारूपे सुकोमले । राजपुत्र्यौ च संत्यज्य भोगान् वचः स्म संयमम् ॥ दुर्गन्धाहं सदादुःखा दुर्देहा सुकुमारिका । विषयेच्छां न मुश्चामि तृष्णाहो मे गरीयसी ॥ इत्युक्त्वांही नता तस्याः प्रार्थयन्ती सुसंयमम् । प्रबोध्य जनकादीन्सा जग्राह परमं तपः ॥ तपस्वी तपन्ती सा सहमाना परीषहान् । विजहार महीं भव्या तया क्षान्तिकया समम् ॥ एकदैचत वेश्यां च वसन्ताद्यन्तसेनकाम् । सा सुन्दरां वनं प्राप्तामावृतां पञ्चभिर्विटैः ॥६८ तां तादृश समालोक्य भूयादीदृग्विधं मम । निदानमकरोद्वाला दुर्मन्धा बन्धुरेति च ॥६९ बर-मण्डप में अलंकारोंसे सुशोभित और मंगलोंसे युक्त ऐसे राजा आमंत्रण देनेसे देशान्तरसे आये । कमला नामक वेत्रधारिणीके साथ वे दोनों कन्यायें मण्डपमें आईं। वहां राजाओंको देखकर उन दोनोंको जातिस्मरण हुआ ।। ५९-६० ॥ पूर्वभवका स्मरण करके उन्होंने अपने पूर्वभव मातापिताओंको कहे । सर्व राजाओंको अपने स्थानमें राजाने लौटा दिया; तथा वे दोनों कन्यायें निविड 1 में गईं। वहां उन्होंने ज्ञानसागर नामक मुनीश्वरको नमस्कार कर जिससे स्त्रियोंको स्त्रीत्व प्राप्त नहीं होगा ऐसे सुसंयम - आर्यिका-व्रत दीक्षाकी याचना की । तदनन्तर वे दोनों उनके पास दीक्षित हुई और विहार करती हुई यहां आयी हैं" ऐसा आर्यिकाका वचन सुनकर सुकुमारिका दुर्गन्धा विरक्त हुई । ६१-६३ ॥ [ दुर्गंधाका दीक्षाग्रहण ] " अहो ये दो राजकन्यायें महाभाग्यवती, महासुंदरी और अतिशय कोमल हैं, तो भी भोगोंका त्याग कर संयमका पालन कर रही हैं और मैं सुकुमारिका दुर्गंधा हूं | हमेशा दुःखिनी हूं । मेरा देह खराब है तो भी मैं विषयेच्छा नहीं छोडती हूं । अहो मेरी तृष्णा बलवत्तर है " ऐसा बोलकर उस आर्मिकाके चरणोंको उसने नमस्कार किया। उससे उसने संयम धारण करने की इच्छा प्रगट की । तदनंतर उसने अपने पितामाता आदिकोंको समझाकर उत्तम तपका स्वीकार किया । तीव्र तपश्चरण करती हुई तथा क्षुधादि परीषहों को सहन करनेवाली भव्या दुर्गंधाने सुव्रता आर्यिका साथ पृथ्वीपर विहार किया || ६४-६७ ॥ किसी समय उसने पांच जारपुरुषों के साथ वनमें आई हुई वसन्तसेना नामक सुंदर वेश्याको देखा। उसको देखकर मुझे भी ऐसी परिस्थिति प्राप्त होवे ऐसा उस [ दुर्विचारोंकी निन्दा] पां ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576