Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

Previous | Next

Page 534
________________ त्रयोविंशं पर्व ४७९ खण्डनी पषणी चुल्ली जलगालनसद्विधिः । विधेयः पात्रदानादि देयं वध्वो विशेषतः ।।८७ द्वे वध्वौ तद्वचस्तूर्णं तदा श्रद्दधतुर्मुदा । नागश्रीविमुखा तस्मान्मिथ्यात्वमलदोषतः ।।८८ सा धर्मविकला दुष्टा कोपना कलहप्रिया । पापकर्मरता कामकलकलिता सदा ॥८९ नागश्रियं श्रियोपेतामुपदेशमुपादिशत् । धर्मस्य सोमिला साध्वी तत्प्रबोधप्रसिद्धये ॥९० चिरण्टि कुटिलत्वं हि समुत्पाव्य सुपाटवम् । धर्म धत्स्व च मिथ्यात्वं मुश्च मान्ये विषादवत्।। मिथ्यात्वमोहिता जीवा न हि श्रद्दधते वृषम् । यथा पित्तज्वराक्रान्ताः पयः सच्छर्कराश्रितम्।। शुद्धो धर्म उपादिष्टः पापिने नैव रोचते । द्वादशात्मासमुद्दीप्तौ यथा घूकाय सूज्ज्वलः ।।९३ मिथ्यात्वान्मोहिता मत्ताः संसारे संसरन्त्यहो। लभन्ते न रति कापि मृगा वा मृगतृष्णया ॥ ९४ मिथ्यात्वं च सदा त्याज्यं देहिभिर्हितसिद्धये । दोषसर्वाकराकीर्ण मलमुक्तैर्यथा मलम् ॥९५ इति धर्मोपदेशस्तु न तस्या मानसे स्थितिम् । व्यधाद्यथाब्जिनीपत्रे पयोबिन्दुः समुज्ज्वलः॥ अन्यदा प्रवरो योगी नाम्ना धर्मरुचिर्महान् । सोमदत्तगृहं प्राप भिक्षायै प्रवरेक्षणः ॥९७ mmen श्रद्धा करती थी। सिर्फ नागश्री मिथ्यात्वमलसे दूषित होनेसे सासके वचनोंसे विमुख होगई। वह धर्म विकल-धर्मरहित थी, दुष्ट थी, कोपिनी थी और कलाहोंमें आनंद माननेवाली थी। पापकोंमें तत्पर और कामदोषसे युक्त थी॥ ८५-८९ ॥ सोमिला साध्वी, लक्ष्मीसे युक्त नागश्रीको धर्मका उपदेश उसको प्रबोधप्राप्तिके लिये देने लगी। “ हे सुवासिनी-सौभाग्यवती नागश्री तू कपटको अपने हृदयसे निकालकर फेक दे, चातुर्ययुक्त धर्मको धारण कर और हे मान्ये, मिथ्यात्वको विषादके समान छोड दे। जैसे पित्तज्वरसे पीडित मनुष्योंको उत्तम शक्करमिश्रित दूध अच्छा नहीं लगता है वैसे मिथ्यात्वमुग्ध जीव धर्मके ऊपर श्रद्धा नहीं करते हैं ॥९०-९२॥ शुद्धधर्मका उपदेश पापीको रुचता ही नहीं है। जैसे उल्लूको अतिशय उज्ज्वल प्रकाशमान् सूर्य नहीं रुचता है। मिथ्यात्वसे मोहित और मत्त हुए लोग संसारमें भ्रमण करते हैं । जैसे कि हरिण मृगतृष्णासे मोहित होकर कहीं भी शांतिको प्राप्त नहीं होते हैं। अपना हित साधनेके लिये मनुष्योंको हमेशा मिथ्यात्वका त्याग करना चाहिये । जैसे मलरहित मनुष्य दोषोंके समूहसे भरा हुआ मल-विष्ठादिक अपवित्र पदार्थ त्यागते हैं। जैसे कमलिनीके पत्र पर उत्तम चमकनेवाला जलबिन्दु स्थिर नहीं रहता तत्काल वहांसे गिरता है वैसे सोमिलाका दिया हुआ धर्मोपदेश नागश्रीके मनमें स्थिर नहीं रहा वह वहाँसे निकल गया ॥ ९३-९६ ॥ .. नागश्रीने मुनिराजको विषयुक्त आहार दिया ] किसी समय धर्मरुचि नामके एक महान् श्रेष्ठ मुनि, जो कि प्रवरेक्षण थे अर्थात् अतिशय देखभाल करके समितिका पालन करनेवाले ये-सोमदत्तके घरमें आहारार्थ आये। अपने गृहमें आये हुए मुनीश्वरको सोमदत्तने शीघ्र देखा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576