Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 532
________________ चिद्रपः केवलः शान्ता शुद्धः सर्वार्थवेदकः । उपयोगमयोऽहं चेति स्मृतिधर्म उच्यते ॥६९ मनसा वचसा तन्वा योऽचिन्त्यश्चेतनात्मकः। .. स्वानुभूत्या परं गम्यो ध्यायतेत्र निरञ्जनः ॥७० संसारसागरान्मुक्तौ यः समुद्धत्य देहिनम् । धत्ते धर्मः स आख्यातः परमो विपुलोदयैः।।७१ धर्मः पुंसो विशुद्धिः स्यात्सुहम्बोधमयात्मनः । शुद्धस्स परमस्यापि केवलस्य चिदात्मनः ॥ इति धर्मस्य सर्वस्वं श्रुत्वापृच्छन्भवान्तरान् ।। आत्मीयानात्मनः शुद्धयै कौन्तेयाः कपटोज्झिताः॥७३ .. अस्माभिः किं कृतं श्रेयो वयं येन महाबलाः। जाताः स्नेहयुताः सर्वेऽन्योन्यं निर्मलमानसाः॥ पाशाली केन पुण्येन जातेयमीडशी शुभा। केनाघेन बभूवासौ पञ्चपूरुषदोषिणी ॥७५ बमाण भगवाश्रुत्वा भव्यानुद्धर्तमुद्यतः। जम्बूपशोभिते द्वीपे सस्यं बाभाति भारतम् ॥७६ तबाजीव महानरगदेशः सुलक्षणैः । दुर्लक्ष्यस्तु विपक्षण क्षोण्यां ख्यातिं गतोऽक्षयी। कर्मरहित, शान्त, शुद्ध और सर्व पदार्थोंको जाननेवाला, उपयोगपूर्ण हूं ऐसी जो स्मृति होना उसे धर्म कहते हैं। मन, वचन और शरीर जिसका चिन्तन करनेमें असमर्थ हैं, जो चेतनात्मक और स्वानुभूतिहीसे जाना जाता है ऐसा निरंजन आत्मा इस स्मृतिमें चिन्तन किया जाता है ॥ ६८७० ॥ विपुल उदयवाले अर्थात् अन्तरंग ज्ञानादि-लक्ष्मी तथा बहिरंग समवसरणादि-लक्ष्मीके धारक जिनेश्वरोंने संसारसमुद्रसे जीवको निकालकर मुक्तिमें-मोक्षमें जो स्थापन करता है, उसे परमधर्म-उत्तम धर्म कहा है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान स्वरूप आत्माकी जो कर्मरहित विशुद्धि-निर्मलता उसे धर्म कहते हैं। परमशुद्ध, केवल चैतन्यमय आत्माकी विशुद्धि धर्म है ।। ७१-७२ ॥ ... | पाण्डवोंके पूर्वभवोंकी 'कथा ] इस प्रकार धर्मका पूर्ण स्वरूप सुनकर कपटरहित कौन्तेयोंने-अर्थात् कुन्तीपुत्र पाण्डवोंने अपने आत्माकी निर्मलता होनेके लिये अपने भव नेनि-प्रभुको पूछे। हे प्रभो, हमने कौनसा पुण्य संचित किया था कि जिससे हम सभी महाबलवान् अन्योन्यमें स्नेहयुक्त और निर्मल मनवाले हुए हैं ! यह द्रौपदी कौनसेपुण्यसे ऐसी शुभकर्म करनेवाली हुई है। तथा किस पापसे पांच पुरुषोंकी पत्नी है ऐसा दोष अपवाद इसका जगत्में फैल गया ? भव्योंको संसारसे उद्धारनेमें उद्युक्त भगवानने पाण्डवोंके प्रश्न सुनकर भोंका वर्णन किया। जम्बूवृक्षसे शोभित द्वीपमें अर्थात् जम्बूद्वीपमें भारतनामका क्षेत्र है। उसमें जैसे सुलक्षणयुक्त अंगोंसे-अवयवोंसे अंगी-शरीर शोभता है वैसा अंगदेश शुभ लक्षणोंसे शोभता है। शत्रुओंसे वह देश दुर्लक्ष्य था अर्थात् उनसे वह अजय्य था। इस पृथ्वीपर इस देशकी ख्याति हुई थी और यह देश अक्षय था ।। ७३-७७ ॥ उसमें चम्पापुर नगर पुण्यवान् था, पवित्र मर्नुष्योंका वह रक्षण करता था अर्थात , पवित्र महापुरुष उसमें रहते थे। तट और खाईसे वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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