Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 538
________________ चतुर्षिशं पर्व ४८३ नागश्रीरथ पापेन प्रकटा लोकनिन्दिता । यष्टिमुष्टयादिभिर्हत्वा प्रापिता पीडनं परम् ॥२ मुण्डाप्य मस्तकं वेगादारोग्याकर्णरासभे । भ्रामयित्वा पुरे साघाल्लोकैनिष्कासिता पुरान् ।। काष्ठलोष्टहता भ्रष्टा नष्टा कुष्ठेन कुष्ठिनी। भूत्वारिष्टेन पश्चत्वं प्राप सा नरकोन्मुखा ॥४ अरिष्टां पञ्चमी पृथ्वीं प्राप पापेन वाडवी । छेदनं भेदनं शूलारोपणं ताडनं गवा ॥५ अखती पापतो दुःखमायुः सप्तदशार्णवम् । निर्गता सा ततः श्वभ्रं भुक्त्वा दुर्धारनेकशः॥ खयंप्रभाभिधे द्वीपे सोऽभूद्दग्विषपन्नगः। हिंस्रकः स चलजिह्वः कोपारुणितलोचनः॥ कृष्णलेश्योऽतिकृष्णाङ्गः फणाफूत्कारभीषणः। स्फुरत्पुच्छः कषायाढ्यो मूर्तः क्रोध इवोद्धरः॥८ मृत्वा द्वितीयां पृथ्वी स जगामाघविपाकतः। त्रिसागरोपमायुष्को दुःखपूरपरिप्लुतः ॥९ बभ्राम निर्गतस्तस्मात्रसस्थावरयोनिषु । किश्चिन्न्यूनद्विकोदन्वत्पर्यन्तं निर्गतस्ततः ॥१० देव और मनुष्य नम्र होते हैं, ऐसे श्रीमहारिष्ट-नेमि जिनेश्वरको अर्थात् महाअरिष्ट-महाअशुभ, संकट और पापको चूर्ण करनेमें नेमिके समान होनेसे अन्वर्थ नामधारक श्रीमहारिष्टनेमि जिनेश्वरको मैं बारबार नमस्कार करता हूं ॥१॥ - नागश्रीका नगरादिकोंमें भ्रमण] नागश्रीने मुनिको विषाहार दिया उससे उसकी दुष्टताकी सर्वत्र प्रसिद्धि हुई। उसकी लोग निंदा करने लगे। लाठी और मुठ्ठियोंसे लोगोंने उसे खूब पीटा जिससे उसे अतिशय दुःख हुआ । लोगोंने उसके मस्तकका मुंडन करवाया, उसको गधेपर बैठाया और नगरमें वेगसे घुमवाया। विषाहार देनेके घोर पापसे लोगोंने उसे अपने नगरसे निकलवाया। लकडी और पत्थरसे उस भ्रष्टाको पीटा, वह वहांसे भाग गई । कुष्ठरोगसे कुष्ठिनी हुई और ऐसे अरिष्टसे (संकटसे) नरकोन्मुख होकर मरणको प्राप्त हुई। पापसे वह नागश्री ब्राह्मणी पांचवी अरिष्टा नामक पृथ्वीमें धूमप्रभा नामक नरकमें उत्पन्न हुई। वहां छेदन, भेदन, शूलके ऊपर आरोपण और ताडन ऐसे दुःखोंको भोगने लगी। सतरह सागर आयुतक पापोदयसे अनेक प्रकारके नारकीय दुःख भोगकर वह दुष्ट बुद्धि नागश्री वहांसे निकलकर स्वयंप्रभ नामक द्वीपमें ' दृष्टिविष' जातिका सर्प हो गई ॥२-६ ॥ जिसकी जिह्वा चञ्चल है, जिसकी आंखें कोपसे लाल होती हैं, जो अशुभतम परिणामोंका अर्थात् कृष्णलेश्याका धारक जिसका संपूर्ण शरीर अत्यंत काला है, फणाके फूत्कारसे भयंकर, जिसका पूंछ चंचल है, जो हिंस्र और कषायोंसे भरा हुआ मानो-उत्कट-तीन मूर्तिमान् क्रोधही है ।। ७-८ ॥ __[ मातङ्गीने अणुव्रत धारण किये ] वह दृष्टिविष जातिका सर्प पुनः मरकर. पापोदयसे द्वितीय नरकमें उत्पन्न हुआ। वहां उसकी आयु तीन सागरोपम थी । वह नारकी दुःखसमूहसे पीडित था। वहांकी आयु समाप्त होनेपर जब निकला तब त्रसस्थावर योनियोंमें कुछ कम दो सागरोपम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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