Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 511
________________ पाण्डवपुराणम् पुनस्त्वं मोहतो मानिन्मा मुह्यतात्स्वमानसे । नागीव विषवल्लीव वृथानीता त्वयाप्यहम् ।। मासमेकं भमाशं त्वं मुक्त्वा तिष्ठ स्थिरं नृप । एतावत्कालपर्यन्तं यद्भाव्यं तद्भविष्यति । कथं कथमपि प्रायस्ते नायास्यन्ति पाण्डवाः। मासमध्ये ततस्तुभ्यं रोचते यञ्च तत्कुरु ।। इत्युक्ते भूपतिस्तस्थौ चिन्तयन्निति चेतसि । रत्नाकरं समुत्तीर्य ते कायास्यन्ति पाण्डवाः॥ ततः सा निरलङ्कारा पानाहारविवर्जिनी। शिरोवेणी प्रबन्ध्यासौ तस्थौ चित्रगतेव वै॥१०३ तदा गजपुरे प्रातः प्रचण्डैः पाण्डुनन्दनैः । निरीक्षितापि नो दृष्टा पाञ्चाली परमोदया।।१०४ तस्या शुद्धिर्न कुत्रापि लब्धा संशोधिता धुवम् । पुनः पुनर्नराधीशैन दृष्टालोकिताप्यलम् ।। तदा द्वारावतीपुर्यां केनापि कथितं हि तत् । चक्रिणे प्रणतिं कृत्वा द्रौपदीहरणं पुनः॥ क्षणं दुःखाकुलस्तस्थौ केशवो विषमो रणे । पुनः क्रुद्धः स युद्धस्य दापयामास दुन्दुभिम् ।। तदा घोटकसंघाता गजा गर्जनतत्पराः । रथाश्चीत्काररावाढ्याश्चेलुश्चञ्चलचक्रिणः ॥१०८ उत्खातखड्गसद्धस्ताः कुन्तकादण्डपाणयः । पदातयस्ततस्तूर्ण प्रपेदिरे नृपाङ्गणम् ॥१०९ चतुरङ्गबलेनासौ यावद्यातुं समुद्ययौ । तावता नारदो यातोऽमरकङ्कापुरीं प्रति ॥११० सौ भ्राताओंके साथ कीचकको मार डाला। पुनः तू भी हे मानी राजा मोहसे मेरी इच्छासे मनमें मोहित मत हो। मैं विषयुक्त नागिनीके समान तथा विषकी लताके समान हूं। तूने मुझे यहां व्यर्थ लाकर रखा हैं। एक महिनातक मेरी-आशा छोडकर हे राजा तूं स्थिर ठहर जा। इतने कालकी मर्यादामें जो कुछ होनहार है वह होगा। यदि किसी तरहसे भी वे पाण्डव एक मासमें नहीं आयेंगे तो तुझे जो रुचता है वह कार्य कर। ऐसा कहनेपर वह पद्मनाभ राजा मनमें ऐसा विचार करने लगा “ समुद्रको उलंघकर वे पाण्डव कहां आ सकते हैं " ॥ ९४-१०२ ॥ तदनंतर द्रौपदीने अपने मस्तकपर वेणी बांधकर आहार और अलंकारोंका त्याग किया। तब वह मानो चित्रलिखितसी दीखने लगी। इधर गजपुरमें प्रातःकाल प्रचण्ड पाण्डुपुत्रोंको उत्तम अभ्युदयवाली पांचाली- द्रौपदी जहां तहां अन्वेषण करनेपरभी नहीं दीखी। अन्यस्थानोंमें उसको ढूंढनेपर भी कहांसे भी उसकी वार्ता नहीं मिली। वारंवार राजाओंसे तलाश करने परभी वह दृष्टिगत नहीं हुई। तब द्वारावतीनगरमें किसीने चक्रवर्तीको प्रणाम करके द्रौपदीकी. हरणवार्ता पुनः निवेदन की ॥ १०३-१०६ ॥ श्रीकृष्ण क्षणतक दुःखी हुए अनंतर रणमें भयंकर केशवने क्रुद्ध होकर युद्धके लिये नगरा बजवाया। तब घोडोंका समूह, गर्जनामें तत्पर हाथी, जिनके चक्र चंचल हैं, जो चीत्कार शब्द करते हैं ऐसे रथ, युद्धसज्ज होकर चलने लगे। कोशसे निकाली हुई तरवारें जिनके हाथमें हैं, तथा जिनके हाथोंमें भाला और धनुष्य हैं ऐसे पैदल अपने स्थानोंसे शीघ्र राजाके अंगणमें जाकर खड़े हो गये। चतुरंग सैन्यके साथ यह श्रीकृष्ण प्रयाण करनेके लिये निकला। इधर नारदने अमरकंकापुरीको जाकर यहां द्रौपदी देखी। अश्रुसमूहसे द्रौपदीका मुख व्याप्त अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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