Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 526
________________ त्रयोविंशं पर्व K अङ्गना संगरङ्गेण रक्तालक्तकरङ्गवत् । विरक्तत्वं प्रयात्याशु का मतिस्तत्र निश्चला ॥९ आत्मीया ये पराः पुत्राः पवित्रा आत्मनो न ते। केवलं कर्मकर्तारः संकल्पितसुखोपमाः ।। ग्रहा इव गृहाः पुंसां विकाराकरकारिणः । परप्रेमकरा आपत्संगदाः संपदापहाः ॥ ११ वसूनि जलदस्येव मण्डलानि सुनिश्चितम् । चश्चलानि परप्रेमकराणि स्युः क्षणे क्षणे ॥ १२ विशरारूणि सर्वत्र शरीराणि शरीरिणाम् । अनेहसा विनश्यन्ति चलानि शुष्कपर्णवत् ॥ १३ आत्मनोऽपि महादेहो नानास्नेहप्रवर्धितः । कालेन विपरीतत्वं याति दुर्जनवत्सदा ॥ १४ अहो इदं शरीरं तु वराहारैः सुपोषितम् | क्षणेन विपरीतत्वं याति शत्रुकदम्बवत् ॥१५ सप्तधातुमये काये व्यपाये पापपूरिते । पूतिगन्धे मनुष्याणां का मतिच स्थिराशया ॥ १६ अहो अनङ्गरङ्गेण रञ्जिता रागिणश्विरम् । रमन्ते रम्यरामासु सातं तंत्र कियन्मतम् ॥ १७ पानी क्षणानंतर गल जाता है वैसे स्वजनोंका संगम शीघ्र नष्ट होता है ।। ७-८ ॥ संभोगरंगसे पतिके ऊपर प्रेम करनेवाली स्त्री लाखके रङ्गके समान शीघ्र विरक्त हो जाती है। ऐसी खीमें निश्चल बुद्धि क्यों करना चाहिये ? लाखका रंग जैसे जल्दी नष्ट होता है वैसे संभोग के हेतुसेहि पतिके ऊपर स्त्रियां प्रेम करती हैं परंतु जब पतिसे संभोगसुख नहीं मिलता है तब वे उससे विरक्त होती हैं। जिन उत्तम पुत्रोंको हम आत्मीय - अपने समझते हैं वे वास्तविक अपने नहीं हैं। मनोरथके सुखके समान वे केवल कर्मबंधके कर्ता है। अर्थात् मनोरथमें वास्तविक सुख नहीं है, क्यों कि उनमें कोई भी वर्तमान कालमें सुख देनेवाला पदार्थ सामने नहीं रहता है परंतु उसमें मनुसुखाभास प्राप्त होता है और ऐसे मनोरथ - मनोराज्य कर्मबंधनका कारण है । वैसे पुत्रोंसे हम अपनेको सुखी समझते हैं परंतु वे कर्मबंधके कारण हैं ॥ ९-१० ॥ जो गृह-मकान, महल आदिक आश्रयस्थान हैं वे शनि आदि ग्रहों के समान विकारसमूह उत्पन्न करनेवाले हैं वे ग्रहके समान दूसरोंके ऊपर प्रेम करनेवाले तथा स्वामीको आपत्तिमें गिरानेवाले और सम्पदाके विनाशक हैं। अनेक प्रकारका सुवर्ण रत्नादि धन मेघमण्डलके समान चंचल हैं ऐसा निश्चयसे समझता चाहिये । तथा प्रतिक्षण अपनेसे भिन्न व्यक्तियोंपर प्रेम करनेवाला है । प्राणियोंके शरीर सर्वत्र नाशवंत हैं । वे सूखे हुए पत्तोंके समान चंचल हैं । और कालसे नष्ट होते है । अनेक स्नेहों से वृद्धिंगत किया हुआ यह अपना अतिशय प्रिय बडा देह दुर्जन के समान हमेशा कालान्तर में विपरीत होता है । उत्तम आहारोंसे पुष्ट किया गया यह देह शत्रुसमूह के समान तत्काल विपरीत अवस्थाको धारण करता है। यह मनुष्योंका शरीर रक्त मांसादि सप्त धातुओंसे भरा हुआ है । विशेष अपायकारक, पापोंसे भरा हुआ और दुर्गंध युक्त है ऐसे शरीरमें यह स्थिर है ऐसी बुद्धि क्यों होती है समझ में नहीं आता ॥ ११-१६ ॥ कामी लोग अनंगरंगसे अनुरक्त होकर अर्थात् कामाकुल होकर रमणीय स्त्रियोंमें रममाण होते हैं । परंतु उनमें कितना सुख है ? अर्थात् शरीरपरि - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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