Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 527
________________ पाण्डवपुराणम् यदङ्गे बहुधा रोगा बहुकोटिप्रमाः खलु । वसन्ति तत्र किं सातं बिले दकिरा यथा ॥१८ मोगास्तु भङ्गराः पुंसां सुखदाः सेवनक्षणे । अन्ते तु नीरसास्तत्र मूढाः किं मन्वते सुखम् ॥ विषयामिषदोषेण विषमेणासुहारिणा । विषेणेव नराः प्रीति कथयन्ति क्षयोन्मुखाः ॥२० विषयेण हता जीवा दुर्गतिं यान्ति दुःखदाम् । पुनस्तमेव सेवन्ते महती मूढता नृणाम् ।। इन्द्रियनिर्जिता जीवा द्रवन्तो द्रव्यमोहतः। विलीयन्ते क्षणार्धेन तस्करैनिंद्रयाथवा ॥२२ विषयाः क्षणिकत्वं हि वदन्तः सर्वशर्मणाम् । सत्यापयन्ति शीघेण सौगतीयं मतं सताम् ।। इन्द्रियाणि शरीराणि वसूनि विपुलानि च । मित्राणि कुत्र दृष्टानि सुस्थिराणि स्थिराशयैः॥ भोगिवच्चञ्चला भोगा भयदा भव्यदेहिनाम् । सेव्यमानाः प्रवर्धन्तेऽग्निना कण्डूभरा इव ॥ भोगैः संभज्यमाना हि वर्धन्ते विषया ननु । न यान्ति शान्तितां कापि ज्वलना दारुतो यथा बम्भ्रम्यन्ते भवे जीवाः सुचिरं पञ्चरूपके । प्रपञ्चिते प्रपञ्चेन पच्यमाना महासुखैः॥२७ अनादिवासनोद्भतमिथ्यात्वमतिमोहतः । विरमन्ति वृषाजीवा अविदन्तो हिताहितम् ॥२८ श्रमकेविना अन्य कुछभी उसमें प्रतीत नहीं होता है ॥१७॥ बिलमें सर्पके समान जिस अंगमें अनेक प्रकारके अनेक कोटिप्रमाण रोग रहते हैं उसमें सुख कैसा ? अर्थात् शरीर रोगोंका घर होनेसे उससे दुःखही मिलता हैं। मनुष्योंके भोग पदार्थ नाशवंत हैं, जब उनका सेवन करते हैं तब वे सुखदायक मीठे मालूम पडते हैं। परंतु अन्तमें वे नीरस होते हैं। इसलिये मूढ लोग उनको सुखकारक क्यों समझते हैं ? विषयका लोभदोष विषके समान विषम और प्राणहारक है। परंतु उनके साथ क्षयोन्मुख लोग प्रीति करते हैं अर्थात् ऐसे भी विषय लोगोंको बहुत प्रिय मालूम होते हैं । इस विषयसे मारे गये जीव दुःखदायक दुर्गतिको प्राप्त होते हैं, तो भी उसीको जीव पुनः सेवन करते हैं यह लोगोंकी बडी मूर्खता है। इंद्रियोंने जिनको पराजित किया है, ऐसे जीव धनके मोहसे इधर उधर दौडते रहते हैं । परंतु चोरोंके द्वारा अथवा निद्रासे वे क्षणार्द्धमें नष्ट होते हैं। क्षणिकवादियोंके मतके समान विषय शीघ्रही संपूर्ण सुखोंका क्षणिकपना व्यक्त करते हैं। इंद्रियाँ शरीर, बहुत धन और मित्र ये पदार्थ स्थिर चित्तवालोंको कहीं स्थिर दीखते हैं ? भव्य प्राणियोंको ये भोग सर्पके शरीरके समान चंचल और भयदायक हैं। जैसे अग्निका सेवन करनेसे खुजली अधिक पीडा देती है वैसे इनका सेवन करनेसे ये भोगपदार्थ बढते हैं। जैसे लकडिओंसे अग्नि कही भी शान्त नहीं होती है वैसे भोगोंसे भोगे गये विषय निश्चयसे बढते हैं ॥ १८-२६ ॥ जो मायासे बढ गये हैं ऐसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ऐसे पांच प्रकारके संसारोंमें महादुःखोंसे पचते हुए जीव दीर्घकालसे भ्रमण कर रहे हैं। अनादिकालकी अविद्यासे उत्पन्न मिथ्यात्व मतिमें मोह उत्पन्न करता है तब जीव हिताहितको न जानते हुए जिनधर्मसे विरक्त होते हैं ॥२८॥ संसारसे बारह प्रकारकी अविरति (व्रत धारण करने की इच्छा न होना) उत्पन्न होती है। विषयरूप मिष्टान्नमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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