Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 521
________________ पाण्डवपुराणम् मध्येसभं जिनो भाति स्पष्टाष्टप्रातिहार्यभृत् । चतुस्त्रिंशन्महाश्चर्यातिशयैः समलंकृतः ॥६४ निर्ग्रन्थाः कल्परामाचार्यिका भवन भौकसाम् । वामा भवनभौमोडकल्पामर्त्यगजादयः ॥६५ एतै‘दशभिः सम्यैः शोभितश्चतुराननः । व्याजहार परं धर्म वरदत्तं गणाधिपम् ॥६६ जीवाजीवास्रवा बन्धः संवरो निर्जरा तथा। मोक्षश्चेति सुतच्चानि सप्त प्रोक्तानि नेमिना ॥ षड्द्रव्यसंग्रहं चाख्यानेमिः पश्चास्तिकायकम् । अधोमध्योर्ध्वभेदेन स्थितिं लोकस्य विश्रुताम् सप्तनारकसंस्थानमायुरुत्सेधपूर्वकम् । द्वीपसागरभेदांश्च नाकलोकसुकल्पनाम् ॥६९ चतस्रस्तु गतीः प्राहेन्द्रियाणि पश्च षट्पुनः । कायान्पश्चदश स्वामी योगान्वेदत्रयं तथा ॥ पञ्चवर्गान्कषायांश्च ज्ञानान्यष्टौ च संयमान् । सप्तसंख्यांश्च चत्वारि दर्शनानि सुदर्शनः॥ षड्लेश्या भव्यभेदौ च षट्सम्यक्त्वानि भेदतः । संड्याहारकभेदांश्च चतुर्दश सुसंख्यया ॥७२ गुणस्थानानि जीवानां समासांस्तावतः पुनः । षट् पर्याप्तीर्दश प्राणान्संज्ञाश्च वेदसंमिताः||७३ उपयोगान्द्विषड्भेदाञ्जीवजातीः कुलानि च । यतिधर्मस्वरूपं च श्रावकाध्ययनं तथा ॥७४ एवं श्रुत्वा शुभं श्रेयः केचित्सम्यक्त्वमाददुः। मिथ्यात्वमलमुत्सृज्य सर्वसंसारकारणम् ॥ धारण करनेवाले और चौतिस महाश्चर्यातिशयोंसे सुशोभित जिनेश्वर शोभते हैं। निर्मन्थमुनि, वर्गकी देवांगना, आर्यिका, भवनवासिनी देवियां, व्यंतरे देवियां, ज्यातिर्षदेवियां, भवनवाँसी देव, व्यंतर देव, ज्योतिष देव, कल्पवासी देव, मनुष्य, होथी ऐसी बारा प्रकारके सभाओंके सहित सभ्योंसे चार मुखवाले प्रभु शोभते थे उन्होंने वरदत्तगणधरको उत्तम धर्मका उपदेश दिया ॥ ६२-६६ ॥ [प्रभुका तत्त्वोपदेश ] जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ऐसे सात तत्त्वोंका स्वरूप जिनेश्वर नेमीने कहा । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ऐसे छह द्रव्योंका संग्रह और पंचारितकाय अर्थात् कालको छोड कर अवशिष्ट द्रव्योंका संग्रह प्रभुने कहा। अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक ऐसी लोककी तीन प्रकारकी प्रसिद्ध स्थितिका विवेचन प्रभूने किया। रत्नप्रभादि सात नरकोंकी रचना, नारकियोंकी आयु, उनकी उँचाई तथा द्वीप और सागरोंके भेद तथा स्वर्गलोकोंकी कल्पना अर्थात् सोलह स्वर्ग, नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश, पंच अनुत्तर, मुक्तिस्थान इनका वर्णन प्रभुने किया। नारकी, तिथंच आदि चार गतियाँ, स्पर्शनादिक पांच इन्द्रियां, त्रसकाय एक और पांच स्थावरकाय ऐसे षट्काय, औदारिक योगादिक पंधरा योग, स्त्री, पुरुष, नपुंसक ऐसे तीन वेद, क्रोधमानादिक पच्चीस कषाय, मत्यादिक आठ ज्ञान, सामायिकादिक सात संयम, चक्षुर्दर्शनादि चार दर्शन इनका वर्णन सुदर्शनने अर्थात् मनोहर सौंदर्यवाले प्रभूने किया। कृष्णादिक छह लेश्या, भव्य और अभव्य, क्षायिकादिक छह सम्यक्त्व संज्ञी, असंझी, आहारक, अनाहारक ऐसी चौदा मार्गणायें, चौदा जीव समास, आहारादि छह पर्याप्तियां, दशप्राण, आहारादिक चार संज्ञा, उपोयोगके बारह भेद, जीवोंकी जातियाँ और कुलोंकी संख्या, यतिधर्मका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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