Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 499
________________ ଡ पाण्डवपुराणम् पुनश्चक्री मुमोचाशु नागपाशं महाशुगम् । तार्यबाणेन चिच्छेद केशवस्तं समुद्धतम् ॥३२९ विससर्ज जरासंधो विद्यां च बहुरूपिणीम् । स्तंभिनीं चक्रिणीं शूलां मोहयन्ती हरेबलम् ॥ ताः सर्वा विष्णुना वेगान्महामन्त्रेण नाशिताः। बहुरूपिणीं गतां वीक्ष्य चक्री जातो विषण्णधीः सुस्मृतं मागधश्चक्रमभि च स्फुरत्प्रभम् । चर्चयित्वागतं हस्ते मुमोच मधुसूदनम् ॥३३२ स्फुरन्नभसि तच्चक्रं त्रासयद् यादवं बलम् । विवेशार्क इव व्योम्नि तत्सेनायां महाकरैः ॥ तदा सर्वे नृपा नष्टाः स्थिरं तस्थौ जनार्दनः । हलिना पाण्डवैः सार्ध निर्भयो भीषयन्परान् ।। त्रिः परीत्य हरिं चक्रं स्थितं तदक्षिणे करे । तदा जयारवो जातो यादवीये बलेऽखिले ॥ माधवो मधुरैर्वाक्यैर्मगधेशमुवाच च । नम मे चरणद्वन्द्वं धरामद्यापि धारय ॥३३६ मदाज्ञां पालय त्वं हि पूर्ववत्सुखितो भव । तन्निशम्य जरासंधः कुद्धोवोचद्विषण्णधीः ॥ त्वं गोपालो महीशेन मया नंनम्यसे कथम् । चक्रगर्वेण गर्वी त्वं मा भूयाः कुम्भकारवत् ।। त्वं च याहि ममाभ्यर्णान्मद्भजाभ्यां म्रियस्व मा । समुद्रविजयो भूपः सेवको मम सर्वदा ॥ चक्रवर्तीने नागपाश नामक महाबाण छोडा परंतु केशवने-श्रीकृष्णने गरुडबाणसे उद्धत नागपाशको छिन्न कर दिया। तदनंतर चक्रवर्ती जरासंधने बहुरूपिणी,संभिनी,चक्रिणी,शूला और मोहिनी ऐसी विद्याओंका हरिके सैन्यपर प्रयोग किया परंतु वे सब विद्यायें कृष्णने महामंत्रके सामर्थ्यसे नष्ट की। बहुरूपिणी विद्या नष्ट हुई जानकर चक्रवर्तीकी बुद्धि खिन्न हुई ॥३२७-३३१॥ जरासंधने सूर्यके समान कांतिवाला,जिसकी प्रभा वृद्धिंगत हो रही है, ऐसे चक्रका स्मरण किया। तब वह चक्ररत्न उसके हाथमें आया। उसकी पूजा करके वह श्रीकृष्णके ऊपर उसने फेंक दिया। यादवोंके सैन्यको भय दिखलानेवाला, आकाशमें अपने तेजस्वी किरणोंसे चमकनेवाला वह चक्ररत्न, सूर्य जैसे आकाशमें प्रवेश करता है वैसे कृष्णकी सेनामें प्रविष्ट हुआ ॥ ३३२-३३३ ।। उस समय सर्व राजा-भाग गये। जनार्दन-कृष्ण बलराम और पाण्डवोंके साथ रणमें स्थिर खडे हुए। श्रीकृष्ण निर्भय थे। परंतु उससमय चक्ररत्नसे युक्त वे अन्योंको डरानेवाले दीखने लगे। श्रीकृष्णको उस चक्ररत्नने तीन प्रदक्षिणायें दी और वह उनके दाहिने हाथमें ठहर गया। उससमय यादवोंके संपूर्ण सैन्यमें जयजयकार होने लगा। श्रीकृष्ण मधुरवाक्योंसे मगधेशको बोलने लगे- “हे जरासंध तुम मेरे दो चरणोंको नमस्कार करो और अद्यापि पृथ्वीको धारण करो-उसका पालन करो। मेरी आज्ञाका तुम पालन करो और पूर्वके समान सुखी हो जावो ।” श्रीकृष्णका भाषण सुनकर खिन्न बुद्धिवाला क्रुद्ध जरासंध बोलने लगा, कि " हे कृष्ण तूं गोपाल है, मैं राजा हूं। मैं तुझे कैसे नमस्कार करूं ? हे कृष्ण तूं चक्रके गर्वसे गर्विष्ठ मत हो। चक्र तो कुम्हारके पासभी होता है। हे कृष्ण तू मेरे पाससे दूर जा, मेरे दो बहुओंसे तू मत मर। समुद्रविजय राजा मेरी हमेशा सेवा करनेवाला सेवक था और तेरा पिता वसुदेव मेरे आगे सिपाहीके समान खडा होता था। तू ग्वालेका पुत्र है, अर्थात् तू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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