Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 507
________________ पाण्डवपुराणम् तन्निशम्य सुरः शीघ्रं सानुरागश्च कार्यकृत् । चचाल चलचिचात्मा संचरन्गगनाङ्गणम्॥ ५५ द्विलक्षयोजनव्यापिसागरं सत्वरं सुरः । जगामोल्लङ्घ्य निर्विघ्नो हस्तिनागपुरं परम् ॥५६ निशायां सदनं तस्याः प्रविश्य संगमः सुरः । साक्षालक्ष्मीमिव क्षिप्रं सुप्तां जहेऽर्जुनाङ्गनाम् हृत्वा सुरः समानीय द्रौपदीं स्वापसंयुताम् । तद्रङ्गोद्यानस हे मुमोच मतिमोहिताम् ॥ ५८ निद्रावशादजानन्तीं हेयाहेयं कथंचन । सशय्या तत्र सा सुप्ता प्रातः पर्यन्तमास्थिता ॥ ५९ पद्मनाभः सुरेणापि विज्ञापितस्तदागमः । प्रबुद्धः पदुधीः प्राप तस्या अभ्यर्णमादरात् ॥ ६० निद्राक्रान्तां स आलोक्य कौमुदीं कनकोज्ज्वलाम् । पीनस्तनीं सुजघनां जहर्षेन्दुसमाननाम् ||६१ भाण भूपतिर्भक्तो भद्रे तु रजनी गता । प्रभातसमयो जातः प्रबुद्धा भव भामिनि ।। ६२ उत्तिष्ठोतिष्ठ वेगेनालोकय त्वं सुलोचने । वद वाणीं विशेषेण विश्वविज्ञानपारगे ||६३ इत्थमुत्थापिता वाक्यैर्मधुरैः सुसुधोपमैः । बस्तैणनयना बाला पश्यति स्म दिशो दश ।। aise देशस्तु को वक्ति एष कः पुरतः स्थितः । किमुद्यानमिदं गेहे वेति चिन्तां तु सा गता ।। चित्तवाला, कार्यकारी देव शीघ्र जाता हुआ आकाशमें चला गया। दो लक्ष योजन विस्तृत समुद्रको सत्वर उलंघकर वह देव निर्विघ्नतासे सुंदर हस्तिनागपुरको प्राप्त हुआ ।। ५२-५६ ॥ रात्रीमें देवने उसके- द्रौपदक महलमें प्रवेश किया, सोई हुई साक्षालक्ष्मी मानो ऐसी अर्जुनस्त्रीको देव हरकर शीघ्र ले गया । इरकर लायी गई जिसकी बुद्धि मोहित हुई है ऐसी द्रौपदीको अमर कंकानगरीके उपवन के उत्तम महलमें देव छोड़कर चला गया । निद्राके वश होनेसे जिसे हेयाहेय कार्यका कुछ भी ज्ञान नहीं है ऐसी वह शय्यापर प्रातः कालतक सोती रही ॥५७-५९ ॥ देवने पद्मनाभराजाको द्रौपदीके आगमन की बात कही । जागृत और चतुरबुद्धि वह राजा बडे आदरसे उसके पास आया ||६०|| सुवर्णसमान उज्ज्वल, ज्योत्स्नाके समान सुंदर, गाढ निद्रायुक्त, पुष्ट स्तनवाली, सुंदर श्रोणि वाली और चंद्रसमान मुखवाली द्रौपदीको देखकर राजा हर्षित हुआ । द्रौपदीके ऊपर लुब्ध हुआ राजा कहने लगा, कि "हे भद्रे, रात्रि समाप्त हुई और अब प्रभात काल हुआ है। हे भामिनि, जल्दी तू जागृत हो । हे सुलोचने, तू जल्दी ऊठ ऊठ । तू मुझे देख, सर्व कलाओंके ज्ञानमें चतुर हे सुलोचने, विशेषतासे मेरे साथ तू बोल " ॥ ६१-६३ ॥ इस प्रकारके अमृतोपम मधुरवाक्योंसे जिसको उठाया है और भययुक्त हरिणके नेत्रतुल्य आंखें जिसकी हैं ऐसी वह द्रौपदी दश दिशाओंको देखने लगी । तथा उसके मनमें ऐसी चिन्ता उत्पन्न हुई " यह कौनसा देश है ! मुझसे बोलनेवाला कौन है ? यह कौन पुरुष मेरे आगे खडा हुआ है ? यह तो निश्चयसे स्वप्नही है इसमें मुझे कुछ भ्रान्ति नहीं दीखती है"। ऐसा विचार कर अपना मुख ढंक कर तथा आंखें मीचकर वह सो गई ।। ६४-६६ ॥ राजाने उसका अभिप्राय जाना अर्थात् यह भामिनी भ्रान्तिमें है ऐसा उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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