Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 485
________________ ४३० पाण्डवपुराणम् इति वास्येन पार्थेशस्तोषयन्सकलान्सुरान् । चिच्छेद बाणसंघातस्तचापध्वजवाजिनः॥१७१ बिभेद तस संनाहं तदावोचजनार्दनः। पार्थास्तं याति नो यावदिवानाथः समुच्छितः॥ तावजयामूर्धानं लुनीहि लावकैः शरैः। जललब्धमहानागवाणं पार्थस्तदाग्रहीत् ॥१७३ यः शासनमहादेव्या सर्परूपेण संददे । तेन बाणेन पार्थोऽसौ लुलाव तस्य मस्तकम् ॥१७४ तच्छीर्ष च समादाय व्योम्नि संप्रेष्य तत्क्षणे । तपस्स्थस्य वने क्षिप्तं जनकस्य कराञ्जलौ ॥ यथा सरस संछिन्नं हंसैः शतदलं तदा । वीक्ष्य तजनकस्तूर्ण पपात पृथिवीतले ॥१७६ जया च हते पाण्डुसैन्ये जयरवोऽभवत् । पार्थस्य जयसंलब्धा कीर्तिर्वश्राम भूतले ॥१७७ हाहारवस्तदा जज्ञे कौरवीयेऽखिले बले । दुर्योधनेन विज्ञाय रुरुदे बाप्पमोचिना ।।१७८ अद्यैव सकलं सैन्यं शून्यं जातं त्वया विना । कौरवं धीरयस्तावदश्वत्थामा जगौ ध्रुवम् ।। हनिष्यामि रणे पार्थ दुखं किं क्रियते नृपाः । इत्युक्त्वा धनुषं धृत्वा दधाव गुरुनन्दनः ।। पार्थेन सह स क्रुद्धश्चके युद्धं महाशरैः । अश्वत्थामा च चिच्छेद पार्थचापगुणं गुणी।।१८१ अन्यं कोदण्डमादाय पार्थो विस्फुरिताननः । चुकोप मत्तदन्तिभ्यो मृगेन्द्र इव भीषणः ॥ पड्भिः शरैस्तदा पार्थोऽपातयत्तस्य सारथिम् । अश्वत्थामा गतो भूमौ हतो मूर्छामुपागतः।। कर डाले और उसका कवच भी भिन्न किया। श्रीकृष्ण तब अर्जुनको बोले, कि “ हे अर्जन ऊपर आया हुआ सूर्य अस्तको पहुंचनेसे पहले तोडनेवाले–तीक्ष्णशरोंसे जयाईका मस्तक तोड " उस समय पानीमें-वापिकामें प्राप्त हुए महानागबाणको अर्जुनने ग्रहण किया, जो कि शासनमहादेवताने सर्परूपसे दिया था। अर्जुनने उस बाणसे जयाका मस्तक तोड दिया। उसका मस्तक तत्काल प्रहण कर आकाशमें भेजकर वनमें तप करनेवाले उसके पिताके हाथकी अंजलिमें फेंक दिया। सरोवरमें हंसोंने तोडे हुए कमलके समान जयाईका मस्तक देखकर उसका पिता शीघ्र भूतलपर गिर पडा। जयाके मारे जानेसे पाण्डवोंके सैन्यमें जयजयकार होने लगा। अर्जुनकी जयसे प्राप्त हुई कीर्ति भूतलमें विचरने लगी। उस समय कौरवोंके संपूर्ण सैन्यमें हाहाकार होने लगा। दुर्योधनको यह वृत्त मालूम पडा तब उसके आखोंसे अश्रु निकलने लगे। वह रोने लगा। ' हे जयाकुमार, आजही तेरेविना मेरा सब सैन्य शून्य हो गया है ॥ १६८-१७८ ॥ दुर्योधनको धैर्य देनेवाला अश्वत्थामा उसे दृढतासे कहने लगा, कि “ मैं निश्चयसे रणमें अर्जुनको मारूंगा। हे राजा, आप दुःख क्यों करते हैं ? " ऐसा बोलकर धनुष्य धारण कर गुरुनंदन-अश्वत्थामा वहांसे अर्जुनके साथ लडनेके लिये दौडा । उसने अर्जुनके साथ कुध्द होकर महाबाणोंसे युद्ध किया । गुणी अश्वत्थामाने अर्जुनके धनुष्यकी डोरी तोड दी। जिसका मुख प्रफुल्लित हुआ है ऐसा अर्जुन अन्य धनुष्य ग्रहण करके मत्त हाथियोंपर जैसा भयंकर सिंह कुपित होता है वैसे कुपित होकर छह बाणोंसे अश्वत्थामाके सारथिको रथसे नीचे गिराया। अश्वत्थामा भी जमीनपर गिरकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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