Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 477
________________ ४२२ पाण्डवपुराणम् तथापि मारयिष्यामि जया जयवाञ्छया । इत्युक्त्वा स्थण्डिले तस्थौ कृत्वा दर्भासनं महत् ॥ स्थितस्तत्र सधैर्येण दध्यौ शासनदेवताम् । आराधितो मया धर्मो जिनदेवः सुसेवितः ॥८२ गुरुश्च यदि प्राकट्यं भज शासनदेवते । इति ध्यायञ्जिनं चित्ते स्थितोऽसौ स्थिरमानसः ॥८३ समायासीचदा पार्थ परशासनदेवता । जजल्पेति हरिं पार्थ सा सुरी सुखकारिणी ॥८४ नरनारायणौ यत्र श्रीनेमिश्च महामनाः । तत्राहं प्रेष्यकारित्वं भजामि भवतामिह ॥८५ युवां च यच्छतां तूर्ण ममादेशं मनोगतम् । अवोचतां तदा तौ तां श्रेष्ठं वैरिवोद्भवम् ॥८६ तच्छुत्वाह सुरी शीघ्रमागच्छतं मया समम् । युवां सेत्स्यन्ति कार्याणि भवतोर्विपुलानि च ॥ तया सत्रं जगामाशु पार्थस्तेन सुमानसः । यत्र सौख्याकरी रम्या कुबेरस्नानवापिका ॥८८ हेमपत्रसमाकीर्णा हंससारससद्रवा । मणिसोपानसंरुद्धा चलत्कल्लोलमालिका ॥८९ देवी बमाण पार्थेशमेतस्य विपुले जले । वसतः फणिनौ भीमौ फणाफूत्कारकारिणौ ॥९० भित्त्वा भयं नरेन्द्राद्य वापिकां प्रविश त्वरा । गृहाण नागयुगलं संशल्यमिव विद्विषः ॥९१ निशम्य निपुणः पार्थः प्रविश्य वरवापिकाम् । जग्राह भुजगद्वन्दं सर्वद्वन्द्वनिवारकम् ॥९२ मैं जयाईको जयकी इच्छासे मारूंगाही । ऐसा कहकर वेदीमें बडा दर्भासन बिछाकर अर्जुन बैठ गया। ॥ ६८-८१ ॥ शासनदेवतासे अर्जुन और श्रीकृष्णको बाणप्राप्ति ] वेदिकाके ऊपर धैर्यसे बैठकर अर्जुनने शासनदेवताका ध्यान किया। मैंने यदि जिनधर्मकी आराधना की होगी, जिनेश्वरकी यदि सेवा की होगी और गुरु की यदि उपासना की होगी तो हे शासनदेवते, तू प्रगट हो। इस प्रकार जिनेश्वरको चित्तमें ध्याता हुआ अर्जुन स्थिरचित्त होकर बैठा। उस समय उत्तम शासनदेवता अर्जुन के पास आगई और वह सुख देनेवाली देवता कृष्ण तथा अर्जुनसे भाषण करने लगी। "हे अर्जुन, श्रीकृष्ण और उदार चित्तवाले नेमिप्रभु जहां है वहां-उस वंशमें मैं आपकी सेवा - आज्ञा पालन करनेके लिये तयार हूं। आप मुझे आपके मनमें जो कार्य स्थित है वह शीघ्र करनेके लिये आज्ञा देवें"। तब वे उसे वैरिवधका श्रेष्ठ कार्य कहने लगे। उसे सुनकर उस देवीने “ मेरे साथ आप दोनो चलिए आपके समस्त कार्य सिद्ध होंगे। तब उसके साथ उत्तम मनवाला अर्जुन जहां सुखदायक रम्य कुबेरवापिका थी, गया। वह सुवर्णकमलोंसे भर गई थी। उसमें हंस, सारस पक्षियोंके मधुर शब्द हो रहे थे। वापिका रत्नमयसोपानोंसे सहित थी और उसमें चंचल कल्लोलोंकी पंक्ति थी। वह देवता अर्जुनको बोलने लगी कि " इस वापिकाके विपुल पानीमें फणाओंसे फूत्कार शब्द करनेवाले और भयंकर ऐसे दो सर्प रहते हैं। हे राजन् , आज भयको छोडकर त्वरासे वापिकामें प्रवेश करो। वहांसे दो नाग जो कि शत्रुको उत्तम शल्यके समान दीखते हैं ” देवताका भाषण सुनकर और उत्तम वापिकामें प्रवेश करके सर्व-कलहोंके निवारण करनेवाले, इन दो नागोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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