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एकादशं पर्व
२२३ रम्भास्तम्भोपमौ यस्या ऊरू सरसकोमलौ । मदनागारसिद्धयर्थ स्तम्भायेते स्म सुस्थिरौ॥ गम्भीराभाच्छुभा नाभिर्यस्यास्तु सरसीसमा । सावर्ता केशमीनाका मदनद्विपकेलिभा॥९० यस्या वक्षसि वक्षोजौ क्ष्माभृताविव दुर्गमौ । कामिनां मारभूपस्य स्थितये दुर्गतां गतौ॥९१ यस्या वदनशुभ्रांशोः शोभा वीक्ष्य विधुन्तुदः। बालच्छलात्समायात इव तद्ब्रहणेच्छया॥९२ स्वर्णाभरणशोभाढ्यौ कौँ यस्या विरेजतुः। श्रुतिसंस्कारयोगेन संस्कृतौ श्रुतिसंमदौ ॥९३ एवं तौ दम्पती भोगान्भुञ्जानौ प्रविभासुरौ। शर्ममनौ वराकारौ रेजतुस्तत्र सद्धिया ।।९४ अथैकदा सुधर्मेशो जिनोत्पत्ति विबुध्य प्राक् । प्राहिणोत्तत्र यक्षेशं षण्मासान रत्नवृष्टये ॥९५ शक्रेण प्रेषितो यक्षो रत्नवृष्टिस्तदालये। षण्मासान्गर्भतः पूर्व विदधे धर्मधीः स्वयम् ॥ खात्पतन्ती तदा रेजे रत्नवृष्टिः प्रभासुरा। आयान्ती स्वर्गलक्ष्मीर्वा लक्षितुं जिनमातरम् ॥९७ सा नभोऽङ्गणमापूर्य पतन्ती रुरुचे तराम् । ज्योतिर्मालेव चायान्ती दिक्षुर्जिनमन्दिरम् ॥९८ रुद्धं च रत्नसंघातैः शातकुम्भमरैस्तथा । जगुरङ्गणमावीक्ष्य जना धर्मफलं तदा ॥९९
योग्यही है कि लज्जासे जडोंकी संगति प्राप्त होती है। जिस रानीके दो जंघायें केलीवृक्षके स्तंभसमान सरस तथा कोमल थीं। वे दोनों जंघायें मदनमंदिर बांधनेके लिये अतिशय स्थिर दो स्तंभोंके समान दीखती थीं । रानी शिवादेवीकी नाभि सरोवरके समान गंभीर और शुभ थी और वह आवर्तयुक्त थी अर्थात् गोलाकारथी उसके ऊपर केशरूपी मीन थे अर्थात् उस नाभिके ऊपर रोमावली थी वह मत्स्यके समान दीखती थी। तथा मदनरूपी हाथ के क्रीडासे शोभती थी । सरोवरभी भौंरोंसे युक्त, गंभीर, गहरा, मछलियोंसे सुशोभित और हाथीकी क्रीडासे शोभता है। जिसके वक्षस्थलमें दो स्तन दुर्गम दो पर्वतोंके समान सघन दीखते थे। कामिपुरुषोंके मदनराजाको ठहरने के लिये मानो वे दो किलेही बनाये गये हैं। जिसके मुखचन्द्रकी शोभा देखकर राहु उसको ग्रहण करनेकी इच्छासे मानो केशोंके समूहके निमित्तसे आया था। इस शिवादेवीके सुवर्णालंकारशोभित दो कान शास्त्रके संस्कारसे संस्कृत और शास्त्रश्रवणसे आनंदित हुए शोभते थे॥८५-९३॥ इसप्रकार भोगोंको भोगनेवाले, सुंदर आकृतिके धारक, अतिशय कान्तियुक्त वे दम्पती सुखमें मग्न थे। उस नगरीमें शुभमतिसे वे शोभने लगे ॥९४॥ किसी समय सौधर्मेन्द्रने जिनजन्म यहां होनेवाला है ऐसा प्रथमही जानकर द्वारकानगरीमें छह महिनोंतक रत्नवृष्टि करनेके लिये कुबेरको भेज दिया। इन्द्रके द्वारा भेजे हुए धर्मबुद्धिके धारक कुबेरने गर्भके पूर्व छह महिनों तक शिवादेवीके महलमें स्वयं रत्नवृष्टि की। आकाशमेंसे गिरती हुई प्रकाशमान रत्नवृष्टि जिनमाताको देखने के लिये मानो आनेवाली स्वर्गलक्ष्मीके समान शोभने लगी। आकाशाङ्गणको व्याप्त कर पडनेवाली वह रत्नवृष्टि जिनमन्दिरको देखने के लिये आनेवाली ज्योतिमालाके समान अतिशय शोभने लगी। माताके महलका अंगण रत्नसमूहोंसे तथा सुवर्णसमूहसे व्याप्त देखकर लोग पूर्वाचरित धर्मका यह फल है ऐसा समझने
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