Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 433
________________ ३७८ पाण्डवपुराणम् उत्तरेण समं पार्थ प्रथमानमहोदयम् । दारयामि तथा तिष्ठेद्यथाणुर्नास्य भूतले ॥७७ रुष्टः क्लिष्टमनास्तावज्जल्पति स्म पितामहः । व दृष्टः संगरः कर्ण भूमौ शत्रुभयंकरः ॥७८ आहवे नैव शक्योऽयं निवारयितुमर्जुनः । रुष्टो दत्ते धरासुप्तिं भवतामपि नान्यथा ॥ ७९ शल्यो बल्यांस्तदा ब्रूते स्मास्माकं कलहः किल । कारितस्त्वयका तात त्रपासंभिन्नचेतसाम् ॥ तावत्सुसाधनं योद्धुममर्यादं सुसाधितम् । दधाव शुद्धिसंपन्नं गजवाजिरथाकुलम् ||८१ तदा पार्थः शरौ शीघ्रं स्वनामाक्षरसंगतौ । प्रेषयामास गाङ्गेयं तौ शरौ तत्र संगतौ ॥८२ साक्षरं वीक्ष्य बाणैकं लात्वेत्यवाचयद्गुरुम् । धनंजयश्च विज्ञप्तिं विदधाति पितामह ||८३ त्वत्पादपङ्कजं नत्वा सेवेऽहं सज्जमानसः । त्रयोदशाद्य वर्षाणि यातानि परिपूर्णताम् ॥८४ इदानीं शत्रुसंघातं हत्वा भुजामि भूतलम् । विशिखाक्षरमाला च दर्शिता गुरुणा तदा || क्षुधा वीक्ष्य भयत्रस्ता अभवन्कौरवा नृपाः । वाहयित्वा रथं पार्थो लक्षीकृत्य विपक्षकम् ॥ उवाचेदं क्व यासि त्वं दुर्योधन महाधम । वैवस्वतपथं द्रष्टुं त्वां प्रेषयामि सत्वरम् ॥८७ कभी देखा है ? जिसकी उन्नति, जिसका अभ्युदय बढ रहा है ऐसे अर्जुनको मैं ऐसा फाड डालूंगा कि उसका अणुभी भूतलपर बचा हुआ नहीं दीखेगा " ॥ ७४-७७ ॥ जिनके मनको क्लेश पहुंचा है और जो रुष्ट हुए हैं ऐसे भीष्माचार्य कर्णको इस प्रकार कहने लगे - " हे कर्ण, शत्रुको भययुक्त करनेवाला तेरा युद्ध हमने इस भूतलपर कभी भी नहीं देखा है । युद्ध में अर्जुनका निवारण करना शक्य नहीं है । यदि यह रुष्ट होगा तो आपको भी धराशायी कर देगा । यह मेरा वचन मिथ्या नहीं है " ॥ ७८-७९ ।। बीचमें बलवानोंको हितकर शल्यराजा आकर भीष्माचार्य से बोला, कि "अहो त, . लज्जासे जिनका चित्त व्याप्त है, ऐसे हम लोगोंमें निश्चयसे आपहीने कलह खडा कर दिया है " ॥ ८० ॥ उस समय सुशिक्षित, जिसमें फूट अथवा फितुरी उत्पन्न नहीं हुई है, ऐसा शुद्धिपूर्ण, हाथी, घोडा, पैदल और रथोंसे पूर्ण अमर्याद सैन्य लडनेके लिये रणभूमिके प्रति दौडने लगा ॥ ८१ ॥ 1 [अर्जुनका स्ववृत्त-कथन] उस समय अर्जुनने भीष्माचार्यके पास स्वनामाक्षर जिनमें लिखे हुए हैं ऐसे दो बाण शीघ्र भेज दिये । वे बाण उनके पास आगये। उन दोनोंमें अक्षरवाला एक लेकर भीष्माचार्य पढने लगे । उसमें गुरु द्रोणाचार्य और भीष्माचार्यको जो विज्ञप्ति की थी वह इस प्रकार की थी - " हे पितामह, आपके चरणोंको वंदनकर मैं सज्जचित्त होकर आपकी सेवा करता हूं । आज तेरह वर्ष परिपूर्ण हुए हैं अब शत्रुओंका संहार करके इस भूतलको मैं भोगूंगा ॥ ८२-८४ ॥ बाणपर लिखी हुई अक्षरोंकी पंक्ति गुरुने - द्रोणाचार्यने कौरवोंको दिखाई । कौरवराजा देखकर क्षुब्ध और भयभीत हुए । अर्जुनने शत्रुको लक्ष्यकर उसके समीप अपना रथ चलाया और कहा, कि " दुर्योधन, तू महाअधम मनुष्य है । अब तू कहां जाता है, मैं देखता हूं। अब मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only " www.jainelibrary.org

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