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पाण्डवपुराणम् सोऽवोचद्धीवरो धीमान्विदग्धा शुद्धमानसः । हते मयि नरेन्द्राधाहते वा किं भविष्यति ॥ भूप किं तु विशेषोऽस्ति महते सरितस्तटम् । को नेता भवतां नूनं यातु त्रिपथगास्थितिः॥ भवतामपकीर्तिस्तु भविता संततं नृप । नृपेण धीवरो ध्वस्त इति लोकापवादतः ॥२८८
तुभ्यं च रोचते राजन यावज्जीवं सरित्स्थिंतिः। चैत्तर्हि वाञ्छितं स्वं त्वं विधेहि विधिवद्धृवम् ॥२८९ अस्मत्कल्पास्तु युष्माकं विधास्यन्ति कदाचन ।
नोत्तारं सुर-हादिन्या भीताः किं यान्ति तत्पदम् ॥२९० तदाकये कपाक्रान्तो ज्येष्ठो भीममबीभणत् । हा वत्स वत्स हा स्वच्छसमिच्छाछनमानस ।। किमुक्तमिदमत्यर्थ यदुक्त्या कम्पतेऽखिलः । प्रेतराजाद्यथा कायः कोमलः किल कर्मकृत् ।। त्वं वेत्ता विदुषां मान्यो विपुलस्य फलस्य च । श्रेयःकिल्विषयोर्नूनं शुभाशुभफलात्मनोः॥ दयावान्यो भवेद्भीरुभवाद्धमणभासुरात् । स एव सुखमामोति श्वपाक इव निश्चितम् ॥२९४ यो हन्ति निर्दयो जीवान्यमातीतो मदावहः । स याति निधनं धृष्टो धनश्रीरिव दुर्धिया ॥ अयं तु धीवरोऽधृष्टः क्षुधाखिन्नः सुखातिगः । पापातस्तृप्तिनिर्मुक्तः कथं हन्यो दयालुभिः ।।
करोंतसे कतरा गया हो। उसकी मुखकान्ति बिलकुल क्षीण हुई। वह धीवर बुद्धिमान्, चतुर और शुद्ध विचारका था। वह बोला "हे राजेन्द्र मुझे मारने न मारनेपर क्या होगा यह कहता हूं। हे राजन् विशेषता तो यह है, कि मुझे मारनेपर आप लोगोंको मेरे बिना नदीके तटपर कौन ले जायेगा? आपको इस गंगानदीमेंही हमेशा रहना पडेगा। राजाने धीवरको मार डाला ऐसे लोकापवादसे आपकी अपकीर्ति हमेशा होगी। यदि आपको आजन्म नदीमें रहनाही पसंद हो तो आप अपना चाहा हुआ कार्य विधिके अनुसार निश्चयसे कीजिये। हमारे सरीखे लोग अर्थात् अन्य धीवर इस गंगानदीसे दूसरे किनारेको आपको कभी नहीं पहुंचावेंगे, क्यों कि भीतियुक्त लोग उस मार्गसे क्यों जायेंगे" ? ॥२८५-२९०॥ वह धीवरका भाषण सुनकर कृपासे व्याप्त चित्तवाले ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर बोले, " हे वत्स, तू तो निर्मल इच्छासे भरा हुआ है। यह तुम प्रयोजनहीन क्या बोल गये? ऐसे भाषणसे सब लोग कंपित होंगे। जैसे कार्य करनेवाला कोमल शरीर यमसे कॅपित होता है वैसा सब कँपने लगेंगे। तुम ज्ञानी हो, विद्वन्मान्य हो । किस कार्यका कौनसा विपुल फल मिलता है उसे तुम जाननेवाले हो, यानी शुभाशुभ फलस्वरूप पुण्य और पापको तुम जाननेवाले हो। भ्रमणसे व्यक्त होनेवाले संसारसे जो डरता है, जिसका मन दयाल है वही मनुष्य यमपाल चाण्डालके समान निश्चित सुखको प्राप्त होता है । जो मनुष्य निर्दय होकर प्राणियोंको मारता है, जो व्रतरहित है और गर्विष्ठ है वह निर्लज्ज धनश्रीके समान दुर्बुद्धिसे विनाशको प्राप्त करता है। ॥ २९१-२९५॥ हे भीम, यह धीवर सज्जन है, भूखसे खिन्न हुआ है, बिचारा सुखसे बहुत
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