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पाण्डवपुराणम् धर्मध्यानधरा धीरा धुरीणा धर्मकर्मसु । तपस्तपति सत्साध्वी कन्येयं केन हेतुना ॥६५ हेतुं विना न वैराग्यं जायते विषमे परे । यौवने वयसि स्फारे कामेन कलिताङ्गके ॥६६ रक्ताम्बरधरा केन हेतुना वनवासिनी । दीक्षां विना भवत्पार्श्वे तिष्ठति स्थिरमानसा ॥६७ वधूं कर्तुमनाः साध्वी कुन्ती तां चारुचक्षुषा । इक्षांचक्रेऽनिमेषेण तरत्तारसुलोचनाम् ॥६८ अक्षुणेनेक्षणेनासौ वीक्षमाणा युधिष्ठिरम् । तस्थौ तेनापि संवीक्ष्य पश्यता तन्मुखाम्बुजम् ।। कटाक्षक्षेपतः सापि दत्ते स्म निजमानसम्। भूपायेक्षणतः सोऽपि ददौ तस्यै स्वमानसम् ॥ अन्योन्यमिति संपृक्तौ मनसा तौ चलात्मना । वचसा वपुषा वक्तुं नाशक्नुतां च सेवितुम् ।। तावता गणिनी प्राह ज्येष्ठा श्रेष्ठे समासतः। श्रृण्वस्याश्चरितं चित्रं चीयमानं सुचेष्टितैः ॥७२ कौशाम्ब्यामत्र सत्पुर्यामजर्यायां वरार्यकैः । वर्यायां धुर्यसद्धैर्यसुचर्याश्रितसच्छ्यिाम् ॥७३ विन्ध्यसेनो नृपोऽभासीत्सुखेन शुभसंश्रितः । विन्ध्यसेनाभवत्तस्य प्रिया सुप्रीतमानसा।।७४ तत्सुता मुगुणापूर्णा वसन्तान्तसेनका । सुरूपा सदृशा साध्वी कलाविज्ञानपारगा ॥७५
धारण करनेवाली आर्यिकाको विज्ञप्तिका आश्रय लेकर वंदन किया और इस प्रकार पूछा-" पूर्ण निरतिचार चारित्रधारक हे आर्यिके, धर्मध्यानकी धारक, धीर, और धर्मकार्यमें अगुआ रहनेवाली यह साध्वी कन्या किस हेतुसे तपश्चरण कर रही है ? विषम और विपुल ऐसे उत्कृष्ट यौवनकालमें शरीर कामविकारसे पीडित रहता है । तोभी ऐसी परिस्थितिमें कारणके विना वैराग्य नहीं होता है । किस कारणसे इस कन्याने लाल वस्त्र धारण किया और वनमें निवास किया है ? हे आर्यिके, दीक्षा लिए बिना मनको स्थिर कर यह आपके पास क्यों रहती है ? " ॥ ६४-६७ ॥ चंचल तेजस्वी आखोंवाली उस कन्याको अपनी पुत्रवधु करनेकी इच्छा करनेवाली वह साध्वी कुन्ती पलकोंको स्थिर करके देखने लगी। वह कन्याभी अनिमिष-नेत्रसे युधिष्ठिरको देख रही थी । देखनेवाला युधिष्ठिरभी उस कन्याके मुखकमलको एकाग्रतासे देख रहा था। कटाक्षोंको फेककर कन्याने अपना अन्तःकरण युधिष्ठिरको दे डाला और उसने भी उस कन्याको अपना अंतःकरण दिया । चंचल मनद्वारा उन दोनोंका एक दुसरेसे संबंध हुआ; परंतु वे वचनोंसे आपसमें न बोलते थे और शरीरसे एक दूसरेको स्पर्श नहीं करते थे ॥ ६८-७१ ॥ उस समय ज्येष्ठ आर्यिकाने कुन्तीसे इस प्रकार कहा। हे श्रेष्ठे, मैं इस कन्याका संक्षेपसे चरित्र कह देती हूं, जो कि आश्चर्यकारक और अच्छी चेष्टाओंसे भरा हुआ है, सुन ॥ ७२ ॥ यह उत्तम कौशांबी नगरी श्रेष्ठ आर्यपुरुषोंसे सदा भरी हुई है। उत्तम धैर्ययुक्त, सदाचारी प्रमुख लोगोंके वैभवसे संपन्न इस श्रेष्ठ नगरीमें पुण्यकार्यका आश्रय करनेवाला विन्ध्यसेन नामक राजा सुखसे राज्य करता है। राजाकी विन्ध्यसेना नामक पत्नी है । उसके मनमें अतिशय स्नेह होनेसे वह राजाको अत्यंत प्रिय है। इन दंपतीको वसंतसेना नामक कन्या है | वह अनेक सद्गुणोंसे पूर्ण है, तथा वह सुरूप, सुनेत्रा, शीलवती है। अनेक
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