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पोडशं पर्व
३२९ गाङ्गेयमिव गाङ्गेयं गुरुं गर्वपरिच्युताः । सावधानतया नित्यं सेवन्ते पाण्डुनन्दनाः ॥१४ तेषामैक्यं विलोक्याशु कौरवो वचनं जगौ । पितामह किमारब्धं त्वया दुर्णयचेतसा ॥१५ पाण्डवं कौरवीयं च समभागेन भुञ्जताम् । राज्यं पाण्डवपक्षत्वं कथं हि क्रियते त्वया ॥१६ क्रोधसंमिश्रितं वाक्यं तस्याकर्ण्य पितामहः । उवाच कौरवाधीश शृणु तत्रास्ति कारणम्॥१७ इमे सत्पुरुषाः शूराः सन्ति सद्गुणभाजनम् । न्यायनिश्चयवेत्तारः सद्धर्मामृतपायिनः ॥१८ न शोचन्ते गतं वस्तु भविष्यच्चिन्तयन्ति न । वर्तमानेषु वर्तन्ते ततस्ते मम वल्लभाः ॥१९ विष्टरश्रवसा तेन सव्यसाची सुमोहतः । एकदाकारितस्तूर्णमूर्जयन्ते महागिरौ ॥२० सुवंशं सुमहापादं तिलकाढ्यं महोन्नतम् । अनेकप्राणिसंकीर्ण ददर्श तं नरं यथा ॥२१ कृष्णस्तत्र समायासीदद्रौ रैवतके वरे । अर्जुनोऽपि तथा तत्र रन्तुं संसक्तमानसः ॥२२
कृतकृत्य हुए थे ॥ ११-१३ ॥
[पाण्डवोंसे दुर्योधनकी ईर्ष्या ] गवरहित पाण्डुपुत्र गंगाके जलसमान निर्मल, तथा सबसे ज्येष्ठ-वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध ऐसे भीष्माचार्यकी एकाग्रचित्तसे सेवा करते थे। पाण्डव और भीष्माचार्यके अभिन्न स्नेहको देखकर कौरव-दुर्योधन बोलने लगा- “हे पितामह दर्नीतिमें जिनका चित्त है ऐसे आप यह क्या अकार्य कर रहे हैं ? पाण्डव और हम कौरव राज्य समभागसे भोग रहे हैं। तथापि आप पाण्डवोंका पक्ष क्यों धारण करते हैं ? आपका उनके ऊपर अधिक स्नेह क्यों दीखता है ? दुर्योधनका क्रोधमिश्रित वाक्य सुनकर भीष्माचार्य बोलने लगे कि हे दुर्योधन जो कारण है उसका स्पष्टीकरण मैं करता हूं, तू सुन । ये पाण्डव सत्पुरुष हैं, शूर हैं और सद्गुणोंके आधार हैं, ये न्यायका निश्चय जाननेवाले हैं और उत्तम जिनधर्मरूप अमृतको सदैव प्राशन करते हैं। जो वस्तु बीत गई नष्ट हुई-उसके विषयमें शोक नहीं करते हैं। तथा आगामी वस्तुके विषयमें चिन्ता नहीं करते हैं । केवल वर्तमानमें अपनी दृष्टि रखते हैं इस लिये वे मुझे प्रिय लगते हैं ।। १४-१९॥
कृष्णके साथ अर्जुनकी क्रीडा] किसी समय कृष्णने प्रेमसे अर्जुनको ऊर्जयन्त नामक महापर्वतपर शीघ्र आमंत्रण देकर बुलाया। अर्जुनने ऊर्जयन्त पर्वतको अपने समान देखा अर्थात् अर्जुन सुवंश-उत्तमवंशमें जन्मा हुआ था, पर्वत भी सुवंश-उत्तम बांसोंके वनसे युक्त था। अर्जुन सुमहापाद-उत्तम और बड़े पांववाला था। पर्वत उत्तम समीपके छोटे पर्वतोंसे युक्त था। अर्जुन तिलकाढ्य-तिलकसे युक्त था और पर्वत तिलकवृक्षोंसे भरा हुआ था। अर्जुन अनेक प्राणिसंकीर्णअनेक प्राणिओंसे हाथी घोडा आदि प्राणियोंसे युक्त था अर्थात् उनका रक्षण करता था। और पर्वत अनेक प्राणियोंसे व्याप्त था। अर्जुन महोन्नत-महावैभवशाली था और पर्वत अतिशय ऊंचा था। उस उत्तम रैवतक पर्वतपर कृष्ण क्रीडा करनेके लिये आया और अर्जुन मी वहां क्रीडा
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