________________
१८०
पाण्डवपुराणम्
प्रायोपगमनं कृत्वा वीरः स्वपरगोचरान् । उपकाराशरीरेऽसौ नैच्छत्स्वच्छसुमानसः ॥ तीव्रं तपस्यतस्तस्य तनुत्वमगमत्तनुः । तस्यावर्धिष्ट सद्भावी ध्यायतः परमेष्ठिनः ॥१३१ सोपवासस्य गात्राणां परं शिथिलताजनि । न कृतायाः प्रतिज्ञाया व्रतं हि महतामिदम् ॥ रसक्षयादभूत्कार्श्य तस्य देहे शरद्धने । यथा स मांसनिर्मुक्तदेहः सुर इवाबभौ ॥ १३३ त्वगस्थीभूतकायोऽसौ व्यजेष्ट यत्परीषहान् । व्यक्तं महाबलं तस्य तदासीद्ध्यानयोगतः || मूर्ध्नि सिद्धाजिनांश्चित्ते मुखे साधून्स्वचक्षुषि । दधौ स परमात्मानं सद्ध्यानी ध्यानयोगतः ॥ अश्रौषीच्छ्रवणे मन्त्रं जिह्वया स तमापठत् । चेतोगर्भगृहे हन्त निधायाशु निरञ्जनम् ॥ १३६ असेः कोशादिवान्यत्वं कायाञ्जीवस्य चिन्तयन् । चिन्तितात्मा निजान्प्राणानौज्झत्स मन्त्रवेदकः देहभारमथो मुक्त्वा लघूभूत इवोन्नतः । स धर्मी कल्पसौधर्म प्राग्दृष्टमिव चागमत् ॥१३८ तत्रोपपादशय्यायामुदपादि महोदयः । निरभ्रे गगने सोऽपि तडित्वानिव सोद्यमः ॥ १३९ नवयौवनसंपूर्णः सर्वलक्षणलक्षितः । सुप्तोत्थित इवाभाति स तथान्तर्मुहूर्ततः ॥ १४०
तृषा आदि परीषहोंको
विषय में निःस्पृहता बढ गई । तीव्र तपश्चरण करते हुए उसका शरीर कृश हो गया परंतु अर्हदादि परमेष्ठियोंका चिन्तन करनेवाले उसके मनमें शुभभावोंकी वृद्धि हो गई । आमरण तीव्र तप करनेवाले राजाका शरीर कृश हुआ; परंतु उसने जो समाधिमरणकी प्रतिज्ञा की थी, वह शिथिल नहीं हुई । क्यों कि पाण्डुराजा महापुरुष था और यह व्रत महापुरुषहीका होता है ॥ १३० - १३२ ॥ जैसे शरत्कालका मेघ रसक्षय - जलक्षय होनेसे कृश होता है वैसे राजाके देहमें रसक्षय- वीर्यक्षय-शक्तिक्षय होनेसे कृशता आ गई । उसके देहमें मांस नष्ट होनेसे वह देवके समान शोभता था। अब राजाका शरीर चर्म और अस्थिही जिसमें अवशिष्ट रही है ऐसा हुआ । तथापि क्षुधा, उसने जीता था । इससे ध्यानद्वारा उसका महाबल व्यक्त हुआ ॥१३३ - ३४ ॥ शुभ - ध्यान - धर्मध्यान धारण करनेवाले पाण्डुराजाने अपने मस्तक में सिद्धपरमेष्ठीको, चित्तमें जिनेश्वरको मुखमें साधुपरमेष्ठिको और अपने नेत्रोंमें परमात्माको धारण किया । मनरूपी गर्भगृहमें उसने कर्मरूपी अंजनसे रहित परमात्माको धारणकर कानोंमें पंचपरमेष्ठि-मंत्र सुना और जिह्वाके द्वारा सतत पठण किया ।। १३५-१३६॥ जैसे कोशसे - म्यानसे तरवार भिन्न होती है वैसे देहसे अपने आत्माकी भिन्नताका विचार करनेवाला, आत्मस्वरूपकी चिन्तामें तत्पर और पंचपरमेष्ठिमंत्रका स्वरूप जाननेवाला ऐसे पाण्डुराजाने अपने प्राण छोड दिये ॥१३७॥ वह उन्नत धर्माचरणतत्पर पाण्डुराजा देहभार छोडकर हलका हो गया । और मानो पूर्वमें देखे हुए ऐसे सौधर्मकल्पको गया । अर्थात् पाण्डुराजा सौधर्मस्वर्ग में उत्पन्न हुआ ॥ १३८ ॥ निरभ्र आकाशमें मेघ जैसा उत्पन्न होता है वैसे महान् उत्कर्षशाली और समाधिमरणमें जिसने उद्यम किया है ऐसा वह पाण्डुराज उपपादशय्याके ऊपर उत्पन्न हुआ । अन्तर्मुहूर्तमें वह वहां नवयौवनसे परिपूर्ण, सर्व शुभलक्षणोंसे युक्त हुआ । वह मानो निद्रा लेकर अभी उठे हुए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org