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दशमं पर्व
१९३ धनुर्वेदं च सर्वेषां स द्रोणः समशिक्षयत् । बाणनिक्षेपणं लक्ष्यं कोदण्डाकर्षणं तथा ॥२७ तत्र पार्थः समर्थस्तु धनुर्वेदं सुसार्थकम् । विवेद द्रोणतः पुण्याद्विद्या याति द्रुतं जने ॥२८ धनंजयो भजन भत्क्या द्रोणाचार्य समाप च । धनुर्वेदं विनिःशेषं गुरुसेवा हि कामसूः ॥२९ तद्भक्तितस्तु स द्रोणस्तस्मै विद्यां समार्पयत् । निशेषां धनुषो व्यक्तं गुरौ भक्तिस्तु कामदा॥ पार्थो व्यर्थीप्रकुर्वाणोऽन्येषां विद्या विदांवरः । रराज तेषु हेमाद्रिः कुलाद्रीणामिवोत्तमः ॥ कौरवाः पाण्डवाः सर्वे धनुर्वेदं यथायथम् । द्रोणतोऽशिक्षयन्क्षिप्रं स्वस्वकर्मानुरूपतः ॥३२ क्रीडन्तो लीलया सव रमन्ते च परस्परम् । धनुर्वेदेन विद्वांसो धनुर्विद्याविशारदाः ॥ ३३ दुर्योधनादयः सर्वे तद्राज्यं न हि वीक्षितुम् । क्षमा विरोधिनः सर्वे पाण्डवैः सह चोद्धताः ॥३४ वर्धमानविरोधेन वर्धमानमहेय॑या । वैरं विशेषतस्तेषां बभूव बहुदुःखदम् ॥ ३५ गाङ्गेयाद्यैर्गभीरैश्च तद्वैरविनिवृत्तये । अर्धधर्म ददे ताभ्यां राज्यं विभज्य युक्तितः ॥ ३६ पाण्डवानां प्रचण्डानां कौरवाणां सुराविणाम् । तथापि ववृधे वैरमेकद्रव्याभिलाषिणाम् ॥ ३७ कौरवा हृदये दुष्टा वाचा मिष्टा निसर्गतः । पाण्डवान्सकलान्हन्तुमीहन्ते हन्त रोषतः ॥३८ तथापि स्नेहतस्ते स्म बाह्यतः प्रीतिमागताः । रमन्ते रम्यदेशेष्वन्योन्यं कौरवपाण्डवाः ॥ ३९
राष्ट्रके पुत्रोंको धनुर्वेद विद्याको पढानेवाले द्रोणाचार्य उत्तम गुरु थे । वे सब कौरव-पाण्डवोंको धनुर्वेदके पाठ पढाने लगे । बाणको फेकना, लक्ष्यको छेदना, धनुष्यका आकर्षण करना, इत्यादि बातें उन्होंने उनको पढाई । उन अनेक विद्यार्थियोंमें अर्जुनने द्रोणाचार्यसे धनुर्वेदको सार्थ जान लिया । योग्य ही है कि, पुण्यसे शिष्यमें विद्या प्रवेश करती है। भक्तिसे द्रोणाचार्य की सेवा करनेवाले अर्जुनने सम्पूर्ण धनुर्वेद उनसे प्राप्त कर लिया । योग्य ही है कि गुरुसेवा इच्छित पदार्थ देनेवाली कामधेनु होती है ॥ २६-२९॥ द्रोणाचार्यने अर्जुनकी भाक्तिसे उसे संपूर्ण धनुविद्या प्रदान की । व्यक्त ही है कि, गुरुमें की गई भक्ति इच्छित पदार्थ देनेवाली होती है। अन्य लोगोंकी विद्याको व्यर्थ करनेवाला विद्वच्छेष्ट अर्जुन कुलपर्वतोंमें उत्तम सुवर्णमेरुके समान विद्वानोंमें शोभता था ॥ ३०-३१ ॥ सभी कौरव और पाण्डवोंने अपने क्षयोपशमके अनुसार द्रोणाचार्य से यथाविधि धनुर्वेद का शिक्षण लिया, धनुर्विद्या निपुण, लीलासे क्रीडा करनेवाले वे विद्वान् धनुर्वेदसे आपसमें रमते थे ॥ ३२-३३ ॥ दुर्योधनादिक सर्व कौरवोंको उनके राज्य का अवलोकन करना सहन नहीं होता था । इसलिये वे सब उनके विरोधी बने । उनका विरोध बढनेसे उनमें ईर्ष्याभी बढगई, जिससे उनका विशेषवैर अतिशय दुःखद हो गया । गांगेय-भीष्म आदि वृद्ध गंभीर पुरुषोंने उनका वैर नष्ट करनेके लिये युक्तिसे आधा आधा राज्य विभक्त कर कौरवपाण्डवोंको दिया। तथापि एक पदार्थ की ( राज्यकी ) अभिलाषा करनेवाले प्रचंड पाण्डव और मधुर भाषण करनवाले कौरवोंमें वैर बढने ही लगा । स्वभावतः कारव हृदयमें दुष्ट और वाणीसे मिष्ट थे । वे क्रोधसे सर्व
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