________________
मित्र-भेद
३३
" राजा की सेवा करने वाला मनुष्य अकुलीन, मूर्ख और सम्मानहीन हो तब भी सब जगह उसका सत्कार होता है ।
" कायर और डरपोक मनुष्य भी यदि राजा का सेवक हो तो लोगों से वह बेइज्ज़त नहीं होता ।
"
इस प्रकार बहुत रो-कलपकर अपमान और उद्वेग से प्रभाव-रहित बना दंतिल अपने घर वापस लौटा। संध्या समय उसने गोरंभ को बुलाया तथा कपड़े का जोड़ा देकर उसका बड़ा सत्कार करते हुए कहा, "भद्र, उस दिन मैंने तुझे गुस्से से नहीं निकाला था । तुझे ब्राह्मणों के आगे अनुचित स्थान पर बैठे देखकर मैंने तेरा अपमान किया । मुझे क्षमा कर ।" गोरंभ ने भी स्वर्ग के राज्य के समान धोती- दुपट्टे के मिलने से अत्यन्त संतोष पाकर उससे कहा, "सेठजी ! आपके उस कृत्य की मैं माफी देता हूँ । आपने मेरा सत्कार किया है तो अब मेरी बुद्धि का प्रभाव तथा (अपने ऊपर होने वाली ) राजा की कृपा देखना ।" ऐसा कहकर संतोष के साथ वह बाहर निकला । ठीक ही कहा है कि
"अहो ! तराजू की डाँडी और खल पुरुष की चेष्टा समान है । थोड़े में वह ऊपर उठती है और थोड़े में ही वह नीचे जाती है ।"
गोरंभ राज-महल में जाकर अर्ध-निद्रा में सोते हुए राजा के पास झाडू देता हुआ बोला, “अरे हमारे राजा की बेवकूफी तो देखो कि पाखाना जाते हुए वह ककड़ी खा रहा है ।" यह सुनकर राजा ने विस्मित होकर उससे कहा, “क्यों रे गोंरंभ, क्यों फजूल की बकवाद करता है ? तुझे घर का चाकर जानकर मैं तुझे मार नहीं डालता ।" क्या तूने मुझे ऐसा काम करते देखा था ? गोरंभ ने जवाब दिया, “देव, जुए के प्रेम में रतजगा करने से झाडू देते समय मुझे जबरदस्ती नींद आ गई और उसके आ जाने पर मैं नहीं जानता कि मैंने क्या कहा । इसलिए निद्रा से बेबस मुझे स्वामी क्षमा करें।” यह सुनकर राजा ने सोचा, “अपने जीवन भर मैंने पाखाना जाते समय कभी ककड़ी नहीं खाई, इसलिए फिर