Book Title: Panchatantra
Author(s): Vishnusharma, Motichandra
Publisher: Rajkamal Prakashan

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Page 268
________________ लब्धप्रणाश २५५ तथा गीध की ओर देखती हुई सियारिन से उस नंगी औरत ने हँसकर कहा, "गीध मांस का टुकड़ा लेकर उड़ गया। मत्स्य पानी में घुस गया। मत्स्य और मांस खोकर हे सियारिन ! अब तू क्या देखती है ?" यह सुनकर पति, धन, और जार से अलग हुई उस स्त्री का मजाक उड़ाते हुए सियारिन ने कहा "जितनी मेरी चतुराई है उससे दुगुनी तेरी है, पर तेरा जार अथवा पति इन दोनों में से एक भी बाकी नहीं रहा । अरी नंगी स्त्री! अब तू क्या देखती है ?" मगर जब यह कह रहा था उसी बीच में एक दूसरे जलचर ने आकर निवेदन किया , "अरे! एक दूसरे बड़े मगर ने तेरे घर पर कब्जा कर लिया है।" यह सुनकर मन में दुःखित होकर उसे घर से निकालने का उपाय सोचते हुए वह वोला , “अरे मेरा भाग्य तो देखो, "मित्र मेरा शत्रु हुआ, मेरी औरत मरी, और मेरा घर दूसरे ने दबा लिया । अब क्या होगा? अथवा यह ठीक ही कहा है कि "चोट लगने पर उसमें ठोकर लगती है, अन्न खत्म हो जाने पर भूख बढ़ती है । आपत्ति में दुश्मनी बढ़ती है। विधाता के बाएं हो जाने पर आदमियों पर यही आफत पड़ती है। अब मैं क्या करूं ? कैसे उसके साथ लडं ? अथवा साम से ही उसे समझाकर घर से निकाल बाहर करूं ? अथवा भेद या दान का प्रयोग करूं? अथवा अपने मित्र बन्दर से पूर्वी । कहा है कि "पूछने लायक और हितैषी बड़ों से पूछकर जो काम करता है उसे किसी काम में विघ्न नहीं पड़ता।" ऐसा सोचकर जामुन के पेड़ पर बैठे हुए उस बन्दर से उसने फिर पूछा, “हे मित्र! मेरी बदनसीबी तो देख । एक दूसरा बलवान् मगर मेरा घर भी दाब बैठा है । इसलिए मैं तुझसे पूछने आया हूं कि क्या करूं। साम इत्यादि उपायों में से यहां कौनसा उपाय लगेगा।" बन्दर बोला, “अरे

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