Book Title: Panchatantra
Author(s): Vishnusharma, Motichandra
Publisher: Rajkamal Prakashan

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Page 308
________________ अपरीक्षितकारक २६५ से व्याकुल होकर उसने पहले की तरह आग के पास जाकर कुबड़े के पैर पकड़कर अपने सिर पर जोरों से घुमाते हुए त्रिस्तनी की छाती पर पटक दिया । कुबड़े के गिरने से स्त्री का तीसरा स्तन छाती में घुस गया तथा जोर से घुमाए जाने से कुबड़ा भी सीधा हो गया । इसलिए मैं कहता हूं कि "अंधा, कुबड़ा, तथा त्रिस्तनी राजकन्या इन तीनों के काम भाग्य के अनुकूल होने से अन्याय से सिद्ध हुए ।” सुवर्णसिद्धि ने कहा, “भाई! यह सच्ची बात है । भाग्य अगर अनुकूल हो तो सब काम बनता है फिर भी आदमियों को अच्छों की बात माननी चाहिए। जो ऐसा करते हैं उनका तेरी तरह नाश नहीं होता । उसी तरह " एक पेट और भिन्न सिर वाले एक दूसरे से फल खाने वाले भारुंड पक्षियों की तरह एकता बिना मनुष्य का नाश हो जाता है ।" चक्रधर ने कहा, “यह कैसे ?" सुवर्णसिद्धि कहने लगा भारुड पक्षी की कथा ." किसी तालाब में एक पेट और अनेक सिरों वाला भारुंड पक्षी रहता था । समुद्र के किनारे घूमते हुए लहर से फेंका हुआ अमृत के समान एक फल उसे मिला । उसे खाकर उसने कहा, "समुद्र की लहरों से फेंके हुए अमृत के समान मैंने बहुत से फल खाये हैं । पर इस फल का और ही स्वाद है । क्या यह पारिजात अथवा हरिचन्दन से पैदा हुआ है अथवा यह कोई अमृतमय फल अनजाने में भाग्यवश यहां आ गिरा है ?” जब वह यह कह रहा था तब उसके दूसरे मुंह ने कहा, "यदि ऐसी बात है तो मुझे भी थोड़ा दे जिससे मैं भी अपनी जीभ को सुखी बना सकू ं।" इस पर पहले सिर ने हँसकर कहा, "हम दोनों का पेट तो एक ही है। एक साथ ही उसकी तृप्ति होती है फिर अलग खाने से क्या फायदा ? बाकी बच सके तो अपनी प्रिया को प्रसन्न करेंगे।" यह कहकर उसने बाकी बचा फल भारुंडी को दे दिया । वह भी उसे चखकर खुशी से उसे भेंट चूमकर अनेक तरह से उसकी खुशा

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