Book Title: Panchatantra
Author(s): Vishnusharma, Motichandra
Publisher: Rajkamal Prakashan

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Page 282
________________ अपरीक्षितकारक ၃၄င် से उन चारों ने आपस में सलाह की, " इस गरीबी को धिक्कार है । कहा भी है कि " बाघ और हाथियों से भरे, विना आदमियों के और कांटों से भरे वन में रहना, घास की सेज और पहनने के लिए छाल ही अच्छे हैं, पर सगे- सम्बंधियों के बीच गरीब होकर रहना ठीक नहीं । और भी "जिसके पास धन न हो, ऐसा आदमी अगर मालिक की भरपूर सेवा करे तो भी वह उससे द्वेष करता है, सद्बांधव उसे एकाएक छोड़ देते हैं, उसके गुण नहीं शोभते पुत्र उसे छोड़ देते हैं, आप - त्तियां बढ़ती हैं, अच्छे कुल की स्त्री भी उसकी ठीक तरह से सेवा नहीं करती, आदमी के नीतिकल्पित पराक्रम भी अमित्र हो जाते हैं । " आदमी बहादुर, खूबसूरत, सुभग अथवा हाजिर-जवाब हो, चाहे उसे शस्त्रों और शास्त्रों का ज्ञान मिला हो, पर बिना धन के उसे इस लोक में मान नहीं मिल सकता । " वही समूची इन्द्रियां हैं, वही नाम है, वही अकुंठित बुद्धि है, वही वचन है, यह सब होते हुए भी धन की गरमी से अलग होने पर आदमी एक क्षण में कुछ का कुछ हो जाता है, यह बात बड़ी विचित्र है । इसलिए धन पैदा करने हमें जाना चाहिए इस तरह आपस में सलाह करके स्वदेश, नगर और बंधु-बांधवों से भरे अपने घर छोड़कर चल पड़े । अथवा ठीक ही कहा गया है कि " इस संसार में चिंता से जिस आदमी की अक्ल घबरा गई हो वह सत्य छोड़ देता है, साथियों से अलग हो जाता है तथा अपनी माता और जन्म भूमि को छोड़कर मनचाहे परदेश को जाता है।" इस तरह घूमते-घामते वह अवंती पहुंचे। वहां सिप्रा नदी के जल में नहाकर और महाकाल को प्रणाम करके जब वे लौट रहे थे तो भैरवानन्द नामक योगी उनके सामने आ गए। ब्राह्मण विधि से उनका सम्मान '

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