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पञ्चतन्त्र
असार है , पहाड़ी नदी की तेजी की तरह यह जवानी जल्दी ही बह जाने वाली है, फूस की आग के समान यह जीवन है , जाड़े के बादलों की छाया के समान भोग अस्थायी हैं, और मित्र , पुत्र, पत्नी और सेवकगणों का साथ सपने की तरह है। इन सबका मैंने पूरी तरह से अनुभव किया है, फिर मैं क्या करने से संसार-सागर से पार उतर सकता हूँ?" यह सुनकर देवशर्मा ने आदर पूर्वक कहा , “वत्स, तू धन्य है कि युवावस्था में ही तुझे वैराग्य हुआ है । कहा भी है कि
"जवानी में ही जो शांत होता है वही मेरी राय में शांत है।
शरीर की धातुओं के छीजने पर तो किसे शांति नहीं होती। "भलेमानसों को पहले मन में और फिर शरीर में बुढ़ापा आता है । दुष्टों को तो केवल शरीर में ही बुढ़ापा आता है, चित्त में तो वह
आता ही नहीं। यदि संसार-सागर को पार करने का उपाय तू मुझसे पूछता है, तो सुन"शूद्र अथवा दूसरा कोई, अथवा चांडाल भी शिव-मंत्र से दीक्षित होकर जटा धारण करे तथा शरीर में भस्म लगाए तो वह शिवरूप होता है। "छः अक्षरों के मंत्र से जो मनुष्य स्वयं शिव-लिंग के ऊपर एक फूल'
भी चढ़ाता है उसका फिर से जन्म नहीं होता।" यह सुनकर आषाढ़भूति ने संन्यासी के पाँव पकड़कर विनयपूर्वक उससे कहा, “भगवन् ! मुझे दीक्षा देकर मेरे ऊपर कृपा कीजिए।" देवशर्मा ने कहा,“ मैं तेरे ऊपर अनुग्रह करूँगा, परन्तु रात में तुझे मठ के अन्दर घुसना नहीं होगा, क्योंकि यतियों के लिए अकेलापन प्रशंसनीय है, मेरे और तेरे दोनों ही के लिए।
कहा भी है"खोटी सलाह से राजा, दूसरों के साथ से संन्यासी , लाड-चाव से पुत्र, न पढ़ने से ब्राह्मण, बदमाश लड़के से कुल, खल के साथ से शील, प्रेम के अभाव से मैत्री , अनीति से समृद्धि, विदेश में