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पञ्चतन्त्र
कि मैं मालिक की आज्ञा लेकर लौट न आऊं।" यह कहकर वह जल्दी से सिंह के पास जा पहुंचा और उसके पास जाकर कहा, “मालिक ! हम सारा वन घूम आये पर कोई जानवर न मिला, अब हम क्या करें ? अब तो हम एक कदम भी आगे चलने में असमर्थ हैं। आप भी पथ्य पर हैं, इसलिए यदि आपकी आज्ञा हो तो ऊँट के मांस से ही आज पथ्य बने।" उसकी ऐसी कठोर बात को सुनकर सिंह ने गुस्से से कहा , 'अरे पापी तुझे धिक्कार है। अगर तूने फिर ऐसा कहा तो उसी वक्त तुझे मैं मार डालूंगा। क्योंकि मैंने उसे अभयदान दिया है, मैं उसे कैसे मार सकता हूँ ? कहा है कि
"विद्वान पुरुष इस लोक में सब दानों में अभयदान को मुख्य दान
कहते हैं; गोदान तथा भूमिदान तथा अन्नदान को नहीं ।” यह सुनकर सियार बोला , “स्वामी ! अभयदान देकर मारने से यह दोष लगता है। पर यदि महाराज की सेवा में वह अपनी जान स्वयं दे दे तो फिर दोष नहीं लगेगा। इसलिए यदि वह स्वयं अपने को मरवाने के लिए हाजिर कर दे तब आप उसे मारिएगा, नहीं तो हममें से किसी एक को मारिएगा, क्योंकि आप पथ्य पर हैं, इसलिए अगर भूख के जोर को रोकेंगे तो आप मर जायंगे। हमारी छोटी जान से क्या जो स्वामी के लिए न दी जा सके। अगर स्वामी का कुछ बुरा हो गया तो हम सब को जल मरना होगा। कहा भी है -
"किसी कुल में जो खास आदमी होता है उसकी सब तरह से रक्षा करनी चाहिए। कुल-पुरुष के नाश हो जाने पर कुल भी नष्ट हो जाता है, जैसे धुरी के टूटने पर केवल आरे गाड़ी का भार
नहीं उठा सकते।" यह सुनकर मदोत्कट ने कहा, "वही करो जो तुम्हें जंचे ।" यह सुनकर सियार दूसरे सेवकों के पास जाकर कहने लगा, “अरे, स्वामी बहुत बीमार हैं, इसलिए यहाँ चक्कर लगाने से क्या मतलब । उनके बिना हमें कौन बचायेगा ? इसलिए हमें वहां जाकर भूख से परलोक जाते हुए उन्हें शरीर अर्पण कर देना चाहिए, जिससे उनकी कृपा से हम उऋण हो जायं।