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मित्रभेद जवान शंकुकर्ण एक क्षण के लिए भी सिंह को नहीं छोड़ता था। एक बार वजूदंष्ट्र की जंगली हाथी के साथ लड़ाई हुई। हाथी ने अपने मदबल से तथा दांतों के प्रहारों से वजूदंष्ट्रका शरीर इतना चाल डाला कि वह चलने-फिरने में भी असमर्थ हो गया। इस प्रकार भूख से कमजोर उस सिंह ने उन तीनों से कहा , “अरे तुम सब जाकर किसी जीव को खोज लाओ जिसे मैं ऐसी हालत में रहते हुए भी मारकर अपनी तथा तुम्हारी भूख दूर करूं।" यह सुनकर वे तीनों शाम तक वन में घूमे, पर कोई प्राणी नहीं मिला। इस पर चतुरक सोचने लगा कि “अगर शंकुकर्ण मारा जाय तो कुछ दिनों तक हम लोगों की भूख मिटेगी। परन्तु मित्र और आश्रित होने से स्वामी उसे नहीं मारेंगे अथवा अपनी चालाकी से मैं ऐसे समझाऊंगा जिससे वह उसे मार डालें। कहा भी है कि
"इस लोक में बुद्धिमानों की बुद्धि से जिसका नाश न हो सके ऐसा, जहां जाया न जा सके ऐसी जगह , जो किया न जा सके ऐसा काम,
कोई नहीं है । इसलिए अपनी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए।" ऐसा विचार करके वह शंकुकर्ण से इस तरह कहने लगा, “हे शंकुकर्ण ! स्वामी भोजन के बिना भूख से पीड़ित हैं, (अगर वह मर गए तो) मालिक के अभाव में हमारा भी अवश्य विनाश होगा । इसलिए महाराज के लिए तुझसे मैं कुछ कहूंगा, उसे सुन ।" शंकुकर्ण ने कहा, "अरे जल्दी कह जिससे बिना किसी खटके के मैं तेरी बात जल्दी ही कर दूं। फिर स्वामी का हित करने से मुझे सौ अच्छे काम करने का फल मिलेगा।" इस पर चतुरक बोला, “हे भद्र! तू अपना शरीर दूने लाभ के लिए स्वामी को अर्पित कर दे, जिससे अगले जन्म में तुझे दुगुना शरीर मिले और स्वामी की जान भी बच जाय।" यह सुनकर शंकुकर्ण ने कहा, “भद्र ! अगर यही बात है तो इसके लिए मेरा, जो काम है उसे कह स्वामी की आवश्यकता पूरी कर। इस बारे में धर्म मेरा जामिन है।" इस प्रकार आपस में सलाह करके वे सब सिंह के पास गये। बाद में चतुरक बोला,"देव ! कोई जानवर नहीं मिला। भगवान सूर्य भी अस्त हो गए हैं, इसलिए यदि स्वामी