Book Title: Panchatantra
Author(s): Vishnusharma, Motichandra
Publisher: Rajkamal Prakashan

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Page 242
________________ काकोलूकीय '२२६ छोटे से काम को बिना किसी यत्न के कर सकता है। इसमें मेरी क्या प्रतिष्ठा होगी,' यह मानकर जो काम की उपेक्षा करते हैं, ऐसे अभिमानी पुरुष आपत्ति के आने पर मामूली काम में परिताप और दुःख पाते हैं। आज से अपने मालिक के शत्रु को जीतकर मैं पहले की तरह सो सकूँगा । कहा भी है --- "घर को निस्सर्प करके अथवा सर्प को निकालकर सुख से सोया जा सकता है । सदा सांप देखने से मुश्किल से नींद आती है। और भी "व्यापारों को बढ़ाकर बड़प्पन पाये हुए संबंधियों द्वारा आशीर्वाद प्राप्त किये हुए, काम में नीति बरतने वाले, साहस से मनचाही जगह पर चढ़ने वाले, मान के लिए पराक्रम करने वाले, जब तक अपना काम नहीं कर लेते तब तक जोश से भरे हुए उनके दिलों में शांति कैसे आ सकती है ? । आरम्भ किये हुए व्यापार के खतम हो जाने पर मेरा हृदय आराम 'पा रहा है। इसलिए आज से इस निष्कंटक राज्य को प्रजापालन में तत्पर होकर लड़के-पोते के क्रम से युक्त लक्ष्मी को नित्य भोगो । और भी - 'जो राजा रक्षादि गुणों से प्रजा का पालन नहीं करता, बकरे के स्तन की तरह उसका राज्य निरर्थक होता है। "जिस राजा कोगुण से प्रेम, दुर्गुणों में अनादर और अच्छे नौकरों की चाह होती है, वह चमर से हिलते हुए वस्त्रों वाली , तथा सफेद छतरी से सजी हुई राजलक्ष्मी को बहुत दिनों तक भोगता है । 'मुझे राज्य मिल गया है, ' यह मानकर लक्ष्मी के मद से तुम्हें अपने को ठगना नहीं चाहिए। राजा की विभूतियां चलती-फिरती रहती हैं। बांस . 'पर चढ़ने की तरह राजलक्ष्मी भी मुश्किल से उठती है, क्षण ही में गिर जाती है। पारे के रस के समान अनेक यत्नों से रखने पर भी वह नहीं रहती। बहुत प्रार्थना करने पर भी वह ठगती है । बन्दरों की तरह वह चंचल होती

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