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पञ्चतन्त्र वहां दो सफेद रेशमी कपड़ों के बीच में पड़ी हुई मन्दविसर्पिी नाम की एक सफेद जूं रहती थी। वह उस राजा का खून चूसती हुई सुख से अपना समय विताती थी। एक दिन उस सोने के कमरे में कहीं से घूमता हुआ अग्निमुख नामका एक खटमल आ गया। उसे देखकर दुखी होकर उस जू ने कहा, "हे अग्निमुख, तुम इस अनुचित जगह में कैसे आ गए, इसके पहले कि कोई जाने-कहे, तुम फौरन यहाँ से भाग जाओ।" उसने कहा, "अगर बदमाश भी अपने घर आया हो तो उससे ऐसा नहीं कहना चाहिए।
कहा भी है-- ''आइए', 'पधारिए', 'आराम कीजिए', 'यह बैठने की जगह है। 'बहुत-बहुत दिनों के बाद क्यों दिखायी दिए. ?' 'क्या हाल है ?" 'आप बहुत कम दीख पड़ते हैं, 'कुशल तो है न?' 'आपके दर्शन से मैं प्रसन्न हूं'---अपने घर नीच के आने पर भी उसको भले आदमी हमेशा इस भांति आवभगत करते हैं । गृहस्थी के
इस धर्म को स्मृतिकार थोड़े में स्वर्ग ले जाने वाला कहते हैं । मैंने खाने की खराबी से तीखें, कड़वे, और कसैले और खट्टे, अनेक तरह के खूनों को चखा है । पर मीठा लहू आज तक मैंने नहीं चखा । अगर तू मेरे ऊपर कृपा करे तो तरह-तरह के अन्न-पान, चूसने और चाटने वाले पदार्थ तथा जायकेदार खाने से जो इस राजा के शरीर में मीठा लह पैदा हुआ है, उसे चखकर अपनी जीभ का आनन्द पाऊं। कहा भी है
"गरीब तथा राजा दोनों के लिए ही जीभ का सुख एक-सा है। इसी को तत्व की बात कहा गया है , और इसी के लिए सारी दुनिया कोशिश करती है। "अगर इस संसार में जीभ को संतोष देने का काम न होता तो कोई किसी का सेवक , और कोई किसी के वश का न होता। "मनुष्य झूठ बोलता है , अथवा असेव्य की सेवा करता है तथा
विदेश जाता है, यह सब काम पेट के लिए ही है। तो फिर तेरे घर आये हुए भूख से पीड़ित मुझे तुझसे भोजन