Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 11
________________ [10]] 'न्यायसंग्रह' के प्रथम खण्ड/वक्षस्कार व द्वितीय खण्ड/वक्षस्कार का लेखनकार्य वि. सं. २०४१ के कपडवंज के चातुर्मास में ही सम्पन्न हुआ और तृतीय खण्ड का लेखन कार्य चातुर्मास के बाद अहमदाबाद आये तब फाल्गुन मास में उनके ही मार्गदर्शन अनुसार सम्पन्न हुआ । चतुर्थ खण्ड में केवल एक ही न्याय का विस्तृत विवेचन था और उनका केवल अनुवाद ही करना था, वह शेष रह गया था। ये तीनों खण्ड का मूलत: गुजराती विवेचन, गुजरात विश्वविद्यालय के संस्कृत के व्याख्याता और 'पाणिनीय संस्कृत व्याकरणशास्त्र परम्परानो इतिहास' ग्रन्थ के लेखक मूर्धन्य वैयाकरण डॉ. जयदेवभाई शुक्ल ने साद्यंत पढकर विशेष सूचनाएँ दी थी। उनकी सूचना का पूर्णतः पालन किया गया है, यह एक खुशी की बात है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि कुछ ही साल पूर्व उनका देहांत हो गया है। वैसे तो 'न्यायसंग्रह' का गुजराती विवेचन वि. सं. २०४५ में ही प्रकाशित कराने की मेरी अपनी भावना थी किन्तु भवितव्यता ही भिन्न थी । अतः वि. सं. २०४७ तक इसी कार्य में कोई प्रगति न हो सकी । बाद में प. पू. गुरुदेव आ. श्रीविजयसूर्योदयसूरिजी महाराज व प. पू. पंन्यास श्रीशीलचन्द्रविजयजी महाराज की सूचना से तीनों खण्ड की मुद्रणा प्रतिलिपि की गई, किन्तु भवितव्यता कुछ और ही थी । अत: कहीं से ऐसी माँग आयी कि ऐसा विद्वद्भोग्य ग्रंथ गुजराती के बजाय राष्ट्रभाषा हिन्दी में हो तो अच्छा होगा । परिणामतः हिन्दी संस्करण तैयार करने की सूचना मुझे मिली । बाद में दो वर्ष तक में अपनी शारीरिक व समय की प्रतिकूलताओं के कारण हिन्दी संस्करण तैयार न कर पाया । उसी समय के दौरान 'न्यायसंग्रह' के चतुर्थ खण्ड का गुजराती अनुवाद, जो शेष रह गया था, वह संपन्न किया । पुनः प. पू. गुरुदेव के अति आग्रह से हिन्दी भाषा में अनुवाद करने का प्रारंभ किया । यही हिन्दी संस्करण उनकी ही प्रेरणा का परिणाम है, एतदर्थ उनका पूज्यभाव व उपकार बुद्धि से स्मरण करके वंदन व नमस्कार करता हूँ। यही हिन्दी संस्करण की पाण्डुलिपि को डो. अनिलकुमार जैन (ओ.एन.जी.सी. के आई. आर. एस. युनिट के उच्च नायब नियामक, अहमदाबाद) व श्री मणिभाई पटेल (अहमदाबाद) ने साद्यंत पढकर भाषाकीय दृष्टि से क्षतिमुक्त बनाया है । एतदर्थ उनके प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करता हूँ । 'न्यायसंग्रह का एक अनूठा विवेचन' लिख देने के लिए श्री ला. द. प्राच्य विद्यामंदिर व श्रीमती शारदाबहन ची. लालभाई शैक्षणिक शोध संस्थान, अहमदाबाद के नियामक डा. जितेन्द्रभाई बी. शाह को धन्यवाद । यही ज्ञानसाधना में प. प. आचार्य श्रीविजयभद्रसेनसरिजी महाराज, मनिश्री जिनसेनविजयजी, आदि की प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता मिली है, एतदर्थ उनका स्मरण करना मेरा आवश्यक कर्तव्य है। मुनिश्री विमलकीर्तिविजयजी के अविस्मरणीय सहयोग से यह ग्रंथ पूर्णतया क्षतिमुक्त बना है, एतदर्थ उनको धन्यवाद । इतनी दस-ग्यारह साल की लम्बी समयावधि के बाद भी यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, यह मेरे लिए जरूर खुशी की बात है। ऐसे ग्रंथ का विवेचन मेरे लिए प्रथम प्रयत्न ही है, अत: विद्वज्जनों की दृष्टि से इसमें क्षतियाँ होने की पूर्णत: संभावना है ही, ऐसी क्षतियों के प्रति विद्वज्जन अंगुलिनिर्देश करने की कृपा करें ता कि दूसरे संस्करण को संमार्जित किया जा सके। पुनः इसी संपूर्ण ग्रन्थ में मूलसूत्रकार व वृत्तिकार कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी, न्यायवृत्तिकार श्रीहेमहंसगणि तथा आचार्य श्रीविजयलावण्यसूरिजी के आशय विरुद्ध अपनी अज्ञानता के कारण कुछ कहा गया हो/लिखा गया हो तो उन सबका 'मिथ्या मे दृष्कृतम्' देता हूँ। साथ साथ सज्जन विद्वानों से विज्ञप्ति करता हूँ कि दृष्टिदोष के कारण या अक्षरसंयोजक द्वारा की गई अशुद्धिओं का संमार्जन करके मुद्रित प्रति को शुद्ध करें। ॥ इति शम् ॥ वि. सं. २०५२ -मुनि नन्दिघोषविजय भाद्रपद सित चतुर्दशी, २६, सितम्बर, १९९६ दादासाहेब जैन उपाश्रय, भावनगर - ३६४ ००१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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