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॥ श्री शङ्केश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ ॥ नमो नमः श्रीगुरुनेमिसूरये ॥
प्रेरणा-स्त्रोत वि.सं. २०३८ और २०३९ के चातुर्मास के दौरान, कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी की वि. सं. २०४५ में आनेवाली नवम जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में उनके सुप्रसिद्ध संस्कृत व्याकरण श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन के बारे में एक विस्तृत तुलनात्मक अनुसंधान महानिबंध लिखने की इच्छा हुई थी । उसके लिए पाणिनीय संस्कृत व्याकरण व सिद्धहेम संस्कृत व्याकरण के सूत्रों की क्रमश: तुलना करके थोडा सा लिखा भी था, किन्तु वैसे लिखना सरल होने के बावजुद बहुत विस्तृत व व्याकरण अध्येताओं के लिए अनावश्यक लगने से लिखना बंद कर दिया ।
बाद में श्रीमती मुद्रिकाबहन डी. जानी का सिद्धहेम का विस्तृत महानिबन्ध देखने को मिला । वह अंग्रेजी भाषा में सिद्धहेम के पहले चार अध्याय पर लिखा गया था। शेष तीन अध्याय पर वैसे लिखने का विचार किया किन्तु साधु-साध्वी समुदाय के लिए अंग्रेजी भाषा उचित न होने से उसी विचार को थाम दिया । पुन: सिद्धहेम
संपर्ण शब्दानशासन के पांचों अंग, प्रक्रिया ग्रंथों व द्याश्रय महाकाव्य, भट्टिकाव्य इत्यादि के साथ तुलनात्मक महानिबंध लिखने का विचार हुआ । उसके लिए आयोजन भी किया किन्तु स्व. डॉ. जयदेवभाई मो. शुक्ल जैसे मूर्धन्य वैयाकरण की यह राय मिली की यदि यह कार्य किसी निश्चित समयावधि में समाप्त करने की आप आशा रखते हो और पीएच.डी. या डी. लिट. की उपाधि के लिए वह कार्य करना चाहते हो तो वह बहुत मुश्किल है, किन्तु समय का बन्धन न हो और केवल स्वान्तःसुखाय हो तो कोई प्रश्न नहीं है।
दूसरा एक सुझाव उन्होंने यह रखा कि सिद्धहेम की परम्परा के केवल प्रक्रिया ग्रन्थों व पाणिनीय परम्परा के केवल प्रक्रिया ग्रंथ-लघसिद्धान्तकौमुदी और सिद्धान्तकौमुदी इत्यादि का तुलनात्मक अध्य सिद्धहेम परम्परा के 'न्यायसंग्रह' का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो अच्छा होगा क्योंकि इस विषय में यहाँ भारत में और विदेश में कोई विशेष अध्ययन नहीं हुआ है । अन्ततोगत्वा प. पू. परमोपकारी गुरुदेव आचार्य भगवंत श्रीविजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराज व प. पू. मुनिश्री शीलचन्द्रविजयजी महाराज (वर्तमान में प. पू. आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराज ) की प्रेरणा से 'न्यायसंग्रह' के विषय में अध्ययन करने का निश्चय किया ।
वैसे तो वि. सं. २०३८ के चातुर्मास के दौरान बम्बई (माटुंगा)में परम पूज्य मुनि श्रीशीलचन्द्रविजयजी महाराज के पास 'न्यायसंग्रह' का अध्ययन किया था और शुरु के पन्द्रह न्यायों का गुजराती भाषा में अनुवाद भी किया था, किन्तु उसी वख्त ऐसी तुलनात्मक अध्ययन करने की दृष्टि नहीं थी । यहाँ एक बात बताना आवश्यक है कि मैंने हैमलघुप्रक्रिया और सिद्धहेमलघवृत्ति का पूर्णतः अध्ययन प. पू. विद्वद्वर्य मुनि श्रीशीलचन्द्रविजयजी महाराज के पास ही किया है, अतः उन्हें कृतज्ञता के साथ स्मरणपथ में लाकर नमस्कार करता हूँ।
वि. सं. २०४० का चातुर्मास अहमदाबाद, (पांजरापोल, जैन उपाश्रय) में हुआ, उसी समय पाणिनीय व्याकरण के मान्य पंडित श्री रजनीकान्त नटवरलाल परीख का परिचय हुआ । पहले तो वे सिद्धहेम व्याकरण की परम्परा से अज्ञात होने से, तुलनात्मक अध्ययन कराने की सम्मति उन्हों ने नहीं दी थी, किन्तु बाद में, वे सम्मत हो गये । फलतः वि. सं. २०४१ के कपडवंज चातुर्मास में 'न्यायसंग्रह' की 'न्यायार्थमञ्जूषा' नामक बृहद्वृत्ति और उसी वृत्ति का न्यास तथा परमपूज्य तपागच्छाधिपति शासनसम्राट् बालब्रह्मचारी आचार्य भगवंत श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर महान् वैयाकरण, सिद्धहेम व पाणिनीय परम्परा के मूर्धन्य विद्वान् आचार्य श्रीविजयलावण्यसूरीश्वरजी की बनायी हुई 'न्यायसमुच्चय' की 'न्यायार्थसिन्धु' व 'तरङ्ग' नामक टीकाओं का अध्ययन और उसके सा तुलनात्मक-अनुसन्धान स्वरूप लेखन कार्य का पंडितवर्य श्रीरजनीकान्तभाई के पास ही प्रारंभ किया । इसी 'न्यायसंग्रह' के लेखनकार्य में उनका पूर्णतः मार्गदर्शन मिला है । जहाँ जहाँ पू. आ. श्रीविजयलावण्यसूरिजी की 'तरङ्ग' नामक टीका में नव्यन्याय की शैलीयुक्त विशेष व्याख्या-परिष्कार आदि आया, उसकी पूरी समझ उन्होंने दी है तथा पाणिनीय परम्परा के 'परिभाषेन्दुशेखर' आदि ग्रंथों में दी गई व्याख्याएँ, शास्त्रार्थ इत्यादि की भी पूरी समझ उनसे ही प्राप्त हुई है । एतदर्थ मैं उनका पूरी तरह ऋणी हूँ।
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