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प्रमेय और प्रमाण :
यहाँ प्रमाण का स्वतन्त्र लक्षण नहीं दिया गया। ब्रह्म, जीव, आत्मा, ईश्वर, जगत और माया- प्रमाण के प्रमाणत्व एवं अप्रमाणत्व की भी चर्चा ये सब प्रमेय तत्व हैं। वेदान्त षट प्रमाण स्वीकार नहीं की। सीधा ज्ञान और प्रमाण में अभेद सिद्ध करता है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, कर दिया गया। यह ज्ञान और प्रमाण का सन्धि अापत्ति और अनूपलब्धि । वेदान्त परिभाषा ग्रन्थ काल है। ज्ञान, प्रमाण में प्रवेश कर चका है। में, प्रमाणों का अतिविस्तृत तथा अति सुन्दर वर्ण युग का पाराण होगा। किया गया है। वेदान्त परिभाषा ग्रन्थ तीन भागों जैन दर्शन में प्रमाण का लक्षण : में विभक्त हैं-प्रमाण, प्रमेय और प्रयोजन । आगम से लेकर तत्वार्थ सत्र तक प्रमाण के वेदान्तसार प्रमेय बहुल ग्रन्थ माना जाता है । संक्षेप भेद-प्रभेद हो चुके थे । परन्तु प्रमाण का लक्षण एवं में, यह वेदान्त का सार है ।
स्वरूप का निर्धारण नहीं हो सका। इस कार्य को जैन दर्शन में प्रमाण व्यवस्था
सम्पन्न किया-परीक्षामुख में माणिक्यनन्दी ने,
प्रमाणनयतत्वालोक में वादिदेव सूरि ने और आगमों में व्यवस्था, अनेक रूपों में प्राप्त होती प्रमाण-मीमांसा में आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने। जिसका उल्लेख स्थानांगसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र और माणिक्यनन्दी ने कहा-वही ज्ञान प्रमाण है, जो नन्दिसूत्र में है। यह व्यवस्था पाँच ज्ञानों को आधार स्व का और अपूर्व अर्थ का निर्णय करता हो । अपूर्व मानकर की है। राजप्रश्नीय में कुमारकेशी राजा विशेषण से आचार्य धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण प्रदेशी को यह कहते हैं, कि हम श्रमण पांच ज्ञान नहीं मानते । परन्तु यह ध्यान में रहे, कि श्वेताम्बर मानते हैं-मति, श्रत, अवधि, मनःपर्याय और आचार्य धारावाही ज्ञान को प्रमाण मानते हैं। केवल । स्थानांग में पांच ज्ञानों को दो प्रमाणों में वादिदेव सूरि ने कहा--स्व और पर का निश्चयाविभक्त किया है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। परोक्ष में त्मक ज्ञान प्रमाण है। यहाँ अपूर्व विशेष हटा दिया मति और श्र त का समावेश किया है, और प्रत्यक्ष गया। आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने कहा- अर्थ का में भवधि, मनःपर्याय और केवल का अनुयोगद्वार में सम्यग् निर्णय प्रमाण है । यहाँ स्व और पर हटा इसी प्रकार का कथन है, लेकिन विभाजन की शैली दिये गये हैं। सम्यक् अर्थ निर्णय को ही रखा है। कुछ भिन्न है। नन्दिमूत्र में विभाजन की शैली ज्ञान और प्रमाण में अभेद है। ज्ञान का अर्थ है, अधिक स्पष्ट हो चुकी है । वह दर्शन युग के अधिक सम्यग्ज्ञान न कि मिथ्याज्ञान । दीपक जब उत्पन्न निकट है। वाचक उमारवाति कृत तत्त्वार्थाधिगम- होता है, तब पर आदि पदार्थ को प्रकाशित सूत्र में अथवा तत्त्वार्थसूत्र में पांच ज्ञानों का विभा- वारने के साथ ही अपने आपको भी प्रकाशित जन दार्शनिक शैली में किया गया है, जो तर्क युग करता है। के समीप पहुंच चुका है। अथवा कहना चाहिए, प्रमाण के भेद । प्रमाण युग की पूर्व भूमिका है।
जैन दर्शन में प्रमाण के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और तर्क युग में ज्ञान और प्रमाण :
परोक्ष । प्रत्यक्ष सीधा आत्मा से उत्पन्न होने वाला वाचक उमास्वाति ने ज्ञान और प्रमाण में है, और परोक्ष इन्द्रिय तथा मन आदि करणों की किसी प्रकार का भेद नहीं देखा। पहले पाँच ज्ञानों सहायता से उत्पन्न होता है । बौद्धों ने भी प्रमाण का नाम बताकर, कह दिया, कि पांचों ज्ञान प्रमाण के दो भेद किये हैं। आचार्य धर्मकीर्ति ने अपने हैं। प्रमाण के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। ग्रन्थ न्याय बिन्दु में कहा-प्रत्यक्ष और अनुमान
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