Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ साधना को अपनाया है। उसकी अपनी कोई साधना प्रक्रिया नहीं है । उसमें तो प्रकृति और पुरुष के भेद विज्ञान पर विशेष बल दिया गया है । पतञ्जलि का योग योग दर्शन के उद्भावक महर्षि पतञ्जलि हैं । इन्होंने योगदर्शन सूत्र की रचना की है। योगदर्शन ने सांख्य दर्शन के सिद्धान्तों को अपनाया है। योग का मत है, कि केवल व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ से ही मोक्ष नहीं हो सकता । प्रकृति और विकृति के प्रभाव से मुक्त होने के लिए चित्त की वृत्तियों का शोधन और नियन्त्रण आवश्यक है । यही है, राज योग 1 योग दर्शन में सांख्य की भाँति पच्चीस तत्त्व हैं, और प्रमाण हैं तीन- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम | योग का भारत में व्यापक प्रभाव था, और उसका प्रसार प्रचार भी बहुत था । योग की अनेक शाखा प्रशाखाएँ होती चली गई हैं। परन्तु योग के मुख्य भेद दो हैं-- राजयोग तथा हठयोग | राजयोग में मन की एकाग्रता का वर्णन है, और हठयोग में शरीर की विशुद्धि के लिए विभिन्न आसन, मुद्रा और बन्धों का वर्णन है। योग में शरीर की शुद्धि और शरीर की दृढ़ता भी तो परम आवश्यक है । अतः योग क्रियात्मक है । योग का साहित्य : पतञ्जलिकृत योग सूत्र, योग सूत्र पर व्यास भाष्य, भाष्य पर तत्व वैशारदी। राजा भोज ने सूत्रों पर भोज वृत्ति लिखी । विज्ञानभिक्षु ने पातजल भाष्य वार्तिक की रचना की । योग साहित्य सन्त परम्परा के सन्तों ने भी समय-समय पर अपनी भाषा में लिखा है । सांख्य और योग एक दूसरे के पूरक दर्शन सम्प्रदाय रहे हैं । न्याय-वैशेषिक सम्प्रदाय न्याय और वैशेषिक, दोनों एक-दूसरे के पूरक दर्शन हैं, विरोधी नहीं । दोनों में कुछ मौलिक भेद भी हैं - न्याय दर्शन प्रमाण प्रधान है, और वैशेषिक दर्शन पदार्थ प्रधान है । प्रमाण को विस्तृत व्याख्या न्याय दर्शन में की है, और पदार्थ-मीमांसा वैशेषिक दर्शन की अपनी विशेषता है। लेकिन लागे चलकर दोनों में समन्वय हो गया था । न्याय दर्शन चार प्रमाण स्वीकार करता है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । वैशेषिक दर्शन सप्त पदार्थों को स्वीकार करता है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विद्वेष, समवाय और अभाव । विशेष पदार्थ को स्वीकार करने के कारण हो इस दर्शन को वैशेषिक कहते हैं । विकास के तीन युग न्याय और वैशेषिक सम्प्रदाय के लीन युग हैंप्राचीन युग, मध्य युग और नवीन युग । महर्षि गौतम के न्याय सूत्र, उन पर वात्स्यायन भाष्य, न्यायवार्तिक, न्याय तात्पर्य वृत्ति और न्याय मञ्जरी आदि ग्रन्थ प्राचीन युग के ग्रन्थ हैं । महर्षि कणाद के सूत्र, उन पर प्रशस्तपाद भाग्य और किरणावली आदि वैशेषिक ग्रन्थ भी प्राचीन युग के ग्रन्थ है। आचार्य उदयन के दो ग्रन्थ - न्याय कुसुमाञ्जलि और आत्म तत्त्वविवेक भी प्राचीन युग के महत्वपूर्ण न्याय ग्रन्थ हैं । मध्ययुग में बौद्ध और जैन न्याय की गणना की है। आचार्य दिङ्नाग और आचार्य धर्मकीर्ति बौद्ध न्याय प्रसिद्ध न्यायिक हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, अकलंक भट्ट वादिदेव सूरि आचार्य प्रभाचन्द्र आचार्य हेमचन्द्र सूरि और उपाध्याय यशोविजय आदि जैन न्याय के प्रसिद्ध एवं विख्यात आचार्य रहे हैं । न्याय वैशेषिक दर्शन का नवीन युग गंगेश उपाध्याय के चिन्तामणि ग्रन्थ से प्रारम्भ होता । मणि पर प्रसिद्ध टीका का नाम- आलोक है। इस परम्परा के प्रसिद्ध आचार्य हैं - पक्षधर मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, गदाधर भट्टाचार्य और मथुरा प्रसाद तथा जगदीष आदि प्रसिद्ध व्याख्याकार हैं । संयुक्त सम्प्रदाय नवीन न्याय युग के बाद न्याय-वैशेषिक दर्शन ( १८ )

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 298