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पंचानामवकाशदान लक्षणमाकाशम्। पंचानां वर्तनाहेतुः कालः। चतुर्णाममूर्तानां शुद्धगुणाः, पर्यायाश्चैतेषां तथाविधाश्च ।
( मालिनी )
इति जिनपतिमार्गाम्भोधिमध्यस्थरत्नं द्युतिपटलजटालं तद्धि षड्द्रव्यजातम् । हृदि सुनिशितबुद्धिर्भूषणार्थं विधत्ते स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः।। १६ ।।
जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ । णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणं ति ।। १० ।।
जीव उपयोगमयः उपयोगो ज्ञानदर्शनं भवति ।
ज्ञानोपयोगो द्विविध: स्वभावज्ञानं विभावज्ञानमिति।। १० ।।
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(शेष) पाँच द्रव्योंको अवकाशदान ( - अवकाश देना) जिसका लक्षण है वह आकाश है।
( शेष ) पाँच द्रव्योंको वर्तनाका निमित्त वह काल है।
(जीवके अतिरिक्त) चार अमूर्त द्रव्योंके शुद्ध गुण हैं; उसकी पर्यायें भी वैसा ( शुद्ध ही ) है। ( अब, नवमी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा छह द्रव्यकी श्रद्धाके फलका वर्णन करते हैं : )
[ श्लोकार्थ:-] इसप्रकार उस षट्द्रव्यसमूहरूपी रत्नको --- जो कि ( रत्न ) तेजके अंबारके कारण किरणोंवाला है और जो जिनपतिके मार्गरूपी समुद्रके मध्यमें स्थित है उसे-जो तीक्ष्ण बुद्धिवाला पुरुष हृदयमें भूषणार्थ ( शोभाके लिये ) धारण करता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है ( अर्थात् जो पुरुष अंतरंगमें छह द्रव्यकी यथार्थ श्रद्धा करता है, वह मुक्तिलक्ष्मीका वरण करता है )। १६।
गाथा १०
अन्वयार्थः-[ जीवः] जीव [ उपयोगमयः ] उपयोगमय है। [ उपयोगः] उपयोग [ ज्ञानदर्शनं भवति ] ज्ञान और दर्शन है । [ ज्ञानोपयोगः द्विविधः ] ज्ञानोपयोग दो प्रकारका है [ स्वभावज्ञानं ] स्वभावज्ञान और [ विभावज्ञानम् इति ] विभावज्ञान।
उपयोगमय है जीव, वह उपयोग दर्शन - ज्ञान है । ज्ञानोपयोग स्वभाव और विभाव द्विविध विधान है ।। १० ।।
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