Book Title: Niyamsara
Author(s): Kundkundacharya, Himmatlal Jethalal Shah
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 353
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धोपयोग अधिकार हैं ): तथा हि ( मालिनी ) व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजोऽयमात्मा प्रकटतरसुदृष्टि: सर्वलोकप्रदर्शी। विदितसकलमूर्तामूर्ततत्त्वार्थसार्थः स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।। २८० ।। णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा। अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा।। १६५ । ज्ञानमात्मप्रकाशं निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात् । आत्मा आत्मप्रकाशो निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात् ।। १६५ ।। जिनमें एक साथ ही व्याप्त है ( अर्थात् जो जिनेंद्रको युगपत् ज्ञात होते हैं), वे जिनेंद्र जयवंत हैं। " और (इस १६४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते ३२६ [ श्लोकार्थ :- ] ज्ञानपुंज ऐसा यह आत्मा अत्यंत स्पष्ट दर्शन होनेपर (अर्थात् केवलदर्शन प्रगट होनेपर ) व्यवहारनयसे सर्व लोकको देखता है तथा ( साथमें वर्तते हुए केवलज्ञानके कारण ) समस्त मूर्त-अमूर्त पदार्थसमूहको जानता है। वह ( केवलदर्शनज्ञानयुक्त ) आत्मा परमश्रीरूपी कामिनीका ( मुक्तिसुंदरीका ) वल्लभ होता है । २८० । गाथा १६५ अन्वयार्थः-[ निश्चयनयेन ] निश्चयनयसे [ ज्ञानम् ] ज्ञान [ आत्मप्रकाशं ] स्वप्रकाशक है; [ तस्मात् ] इसलिये [ दर्शनम् ] दर्शन स्वप्रकाशक है। [ निश्चयनयेन ] निश्चयनयसे [आत्मा] आत्मा [आत्मप्रकाशः ] स्वप्रकाशक है; [ तस्मात् ] इसलिये [ दर्शनम् ] दर्शन स्वप्रकाशक है। 1 है ज्ञान निश्चयन निज-प्रकाशक इसलिये त्यों दर्श है । है जीव निश्चयन निज-प्रकाशक इसलिये त्यों दर्श है ।। १६५ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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