Book Title: Niyamsara
Author(s): Kundkundacharya, Himmatlal Jethalal Shah
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 361
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धोपयोग अधिकार ३३४ तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः (अपरवक्त्र) "स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम्। इति जिन सकलज्ञलांछनं वचनमिदं वदतांवरस्य ते।।'' तथा हि (वसंततिलका) जानाति लोकमखिलं खलु तीर्थनाथ: स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम्। नो वेत्ति सोऽयमिति तं व्यवहारमार्गाद् वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्य दोषः।। २८५ ।। इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री समंतभद्रस्वामीने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमें श्री मुनिसुव्रत भगवानकी स्तुति करते हुए ११४ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि: " [ श्लोकार्थ:-] हे जिनेंद्र! तू वक्ताओंमें श्रेष्ठ है; 'चराचर (जंगम तथा स्थावर ) जगत प्रतिक्षण (प्रत्येक समयमें) उत्पादव्ययघ्रौव्यलक्षणवाला है" ऐसा यह तेरा वचन ( तेरी) सर्वज्ञताका चिह्न है।" और ( इस १६९ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते [ श्लोकार्थ:-] तीर्थनाथ वास्तवमें समस्त लोकको जानते हैं और वे एक, अनघ (निर्दोष), निजसौख्यनिष्ठ (निज सुखमें लीन) स्वात्माको नहीं जानते-ऐसा कोई मुनिवर व्यवहारमार्गसे कहे तो उसे दोष नहीं है। २८५। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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