Book Title: Niyamsara
Author(s): Kundkundacharya, Himmatlal Jethalal Shah
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 388
________________ ३६१ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार पूर्वापरदोषो विद्यते चेत्तद्दोषात्मकं लुप्त्वा परमकवीश्वरास्समयविदश्चोत्तमं पदं कुर्वन्त्विति । ( मालिनी ) जयति नियमसारस्तत्फलं चोत्तमानां हृदयसरसिजाते निर्वृतेः कारणत्वात्। प्रवचनकृतभक्त्या सूत्रकृद्भिः कृतो यः स खलु निखिलभव्यश्रेणिनिर्वाणमार्गः ।। ३०५ ।। ईसाभावेण पुणो केई णिंदंति सुंदरं मग्गं। तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे ।। १८६ ।। ईर्षाभावेन पुनः केचिन्निन्दन्ति सुन्दरं मार्गम्। तेषां वचनं श्रुत्वा अभक्तिं मा कुरुध्वं जिनमार्गे ।। १८६ ।। इह हि भव्यस्य शिक्षणमुक्तम्। पूर्वापर दोष हो तो समयज्ञ परमकवीश्वर दोषात्मक पदका लोप करके उत्तम पद करना । [अब इस १८५ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं: ] [ श्लोकार्थ :- ] मुक्तिका कारण होनेसे नियमसार तथा उसका फल उत्तम पुरुषोंकें हृदयकमलमें जयवंत है। प्रवचनकी भक्तिसे सूत्रकारने जो किया है ( अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवने जो यह नियमसारकी रचना की है), वह वास्तवमें समस्त भव्यसमूहको निर्वाणका मार्ग है । ३०५ । गाथा १८६ अन्वयार्थः-[ पुनः] परंतु [ ईर्षाभावेन ] ईर्षाभावसे [ केचित् ] कोई लोग [ सुन्दरं मार्गम्] सुंदर मार्गको [ निन्दन्ति ] निंदते हैं [ तेषां वचनं ] उनके वचन [ श्रुत्वा ] सुनकर [ जिनमार्गे ] जिनमार्ग प्रति [ अभक्तिं ] अभक्ति [ मा कुरुध्वम् ] नहीं करना । टीका:- यहाँ भव्यको शिक्षा दी है। जो कोई सुंदर मार्गकी निंदा करे मात्सर्यमें । सुनकर वचन उसके अभक्ति न कीजिये जिनमार्ग में ।। १८६ । Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com

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