Book Title: Niyamsara
Author(s): Kundkundacharya, Himmatlal Jethalal Shah
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 371
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धोपयोग अधिकार ३४४ मोहनीयकर्मविलासविजूंभितः, अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन सह यः वर्तत इति साक्षार्थं मोहनीयस्य वशगतानां साक्षार्थप्रयोजनानां संसारिणामेव बंध इति। तथा चोक्तं श्रीप्रवचनसारे "ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसि। अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं।।'' (शार्दूलविक्रीडित) देवेन्द्रासनकंपकारणमहत्कैवल्यबोधोदये मुक्तिश्रीललनामुखाम्बुजरवेः सद्धर्मरक्षामणेः। सर्वं वर्तनमस्ति चेन्न च मनः सर्वं पुराणस्य तत् सोऽयं नन्वपरिप्रमेयमहिमा पापाटवीपावकः।। २९२ ।। (१) बंध मोहनीयकर्मके विलाससे उत्पन्न होता है। (२) 'अक्षार्थ' अर्थात् इंद्रियार्थ ( इंद्रिय-विषय); अक्षार्थ सहित हो वह ‘साक्षार्थ'; मोहनीयके वश हुए, साक्षार्थ-प्रयोजन (-इंद्रियविषयरूप प्रयोजनवाले) संसारियोंको ही बंध होता है। इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (४४ वीं गाथा द्वारा) कहा है कि: " [ गाथार्थ:-] उन अहँतभगवंतोंको उस काल खड़े रहना, बैठना , विहार और धर्मोपदेश स्त्रीओंके मायाचारकी भाँति, स्वाभाविक ही-प्रयत्न बिना ही होता है।" [अब इस १७५ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते [ श्लोकार्थ:-] देवेंद्रोंके आसन कंपायमान होनेके कारणभूत महा केवलज्ञानका उदय होनेपर , जो मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्रीके मुखकमलके सूर्य हैं और सद्धर्मके रक्षामणि हैं ऐसे पुराण पुरुषको सर्व वर्तन भले हो तथापि मन सर्वथा नहीं होता; इसलिये वे (केवलज्ञानी पुराणपुरुष) वास्तवमें अगम्य महिमावंत हैं और पापरूपी वनको जलानेवाली अग्नि समान हैं। २९२। ___* रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा पिशाच आदिसे अपनेको बचानेके लिये पहिना जाने वाला मणि। ( केवलीभगवान सद्धर्मकी रक्षाके लिये-असद्धर्मसे बचने के लिये-रक्षामणि है।) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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