Book Title: Niyamsara
Author(s): Kundkundacharya, Himmatlal Jethalal Shah
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 319
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय-परमावश्यक अधिकार २९२ आवासएण हीणो पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो। पुव्वुत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा।।१४८ ।। आवश्यकेन हीनः प्रभ्रष्टो भवति चरणतः श्रमणः। पूर्वोक्तक्रमेण पुनः तस्मादावश्यकं कुर्यात्।।१४८ ।। अत्र शुद्धोपयोगाभिमुखस्य शिक्षणमुक्तम्। अत्र व्यवहारनयेनापि समतास्तुतिवंदनाप्रत्याख्यानादिषडावश्यकपरिहीण: श्रमणश्चारित्रपरिभ्रष्ट इति यावत्, शुद्धनिश्चयेन परमाध्यात्मभाषयोक्तनिर्विकल्पसमाधिस्वरूपपरमावश्यकक्रियापरिहीणश्रमणो निश्चयचारित्रभ्रष्ट इत्यर्थः। पूर्वोक्तस्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयावश्यकक्रमेण स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यान स्वरूपेण सदावश्यकं करोतु परममुनिरिति। अतिशयरूपसे कारण होता है;-ऐसा जानकर जो ( मुनिवर) निर्दोष समयके सारको सर्वदा जानता है, ऐसा वह मुनिपति-कि जिसने बाह्य क्रिया छोड़ दी है वह-पापरूपी अटवीको जलानेवाली अग्नि है। २५५। गाथा १४८ अन्वयार्थ:-[ आवश्यकेन हीनः] आवश्यक रहित [श्रमणः ] श्रमण [चरण:त] चरणसे [ प्रभ्रष्टः भवति ] प्रभ्रष्ट ( अति भ्रष्ट ) है; [ तस्मात् पुनः ] और इसलिये [ पूर्वोक्तक्रमेण ] पूर्वोक्त क्रमसे ( पहले कही हुई विधिसे ) [ आवश्यकं कुर्यात् ] आवश्यक करना चाहिये। टीका:-यहाँ ( इस गाथामें) शुद्धोपयोगसंमुख जीवको शिक्षा कही है। यहाँ (इस लोकमें ) व्यवहारनयसे भी, समता, स्तुति, वंदना, प्रत्याख्यान आदि छह आवश्यकसे रहित श्रमण चारित्रपरिभ्रष्ट (चारित्रसे सर्वथा भ्रष्ट ) है; शुद्धनिश्चयसे, परमअध्यात्मभाषासे जिसे निर्विकल्प-समाधिस्वरूप कहा जाता है ऐसी परम आवश्यक क्रियासे रहित श्रमण निश्चयचारित्रभ्रष्ट है;-ऐसा अर्थ है। (इसलिये) स्ववश परमजिनयोगीश्वरके निश्चय-आवश्यकका जो क्रम पहले कहा गया है उस क्रमसे (-उस विधिसे), स्वात्माश्रित ऐसे निश्चय-धर्मध्यान तथा निश्चय-शुकलध्यानस्वरूपसे, परम मुनि सदा आवश्यक करो। रे श्रमण आवश्यक-रहित चारित्रसे प्रभ्रष्ट है । अतएव आवश्यक करम पूर्वोक्त विधिसे इष्ट है ।।१४८।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400