Book Title: Niyamsara
Author(s): Kundkundacharya, Himmatlal Jethalal Shah
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 332
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ३०५ णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो।।१५६ ।। नानाजीवा नानाकर्म नानाविधा भवेल्लब्धिः। तस्माद्वचनविवादः स्वपरसमयैर्वर्जनीयः।। १५६ ।। वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिहेतूपन्यासोऽयम्। जीवा हि नानाविधाः मुक्ता अमुक्ताः भव्या अभव्याश्च , संसारिण: त्रसा: स्थावराः। द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंझ्यसंज्ञिभेदात् पंच त्रसाः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः। भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहजज्ञानादिगुणैः भवनयोग्या भव्याः एतेषां विपरीता लौकिक जल्पजालको ( वचनसमूहको) तजकर, शाश्वतसुखदायक एक निज तत्त्वको प्राप्त होता है। २६६। गाथा १५६ अन्वयार्थ:-[ नानाजीवाः ] नाना प्रकारके जीव हैं, [ नानाकर्म ] नाना प्रकारका कर्म हैं, [ नानाविधा लब्धिः भवेत् ] नाना प्रकारकी लब्धि है; [ तस्मात् ] इसलिये [ स्वपरसमयैः] स्वसमयों तथा परसमयोंके साथ (स्वधर्मियों और परधर्मियों के साथ) [ वचनविवाद:] वचनविवाद [ वर्जनीयः ] वर्जनेयोग्य है। टीका:-यह, वचनसंबंधी व्यापारकी निवृत्तिके हेतुका कथन है ( अर्थात् वचनविवाद किसलिये छोड़नेयोग्य है उसका कारण यहाँ कहा है)। जीव नाना प्रकारके हैं: मुक्त और अमुक्त, भव्य और अभव्य, संसारी-त्रस और स्थावर। द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय तथा (पंचेंद्रिय) संज्ञी तथा (पंचेंद्रिय) असंज्ञी ऐसे भेदोंके कारण त्रस जीव पाँच प्रकारके हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति यह ( पाँच प्रकारके) स्थावर जीव हैं। भविष्य कालमें स्वभाव-अनंत-चतुष्टयात्मक सहजज्ञानादि गुणोंरूपसे भवनके भवने योग्य (जीव) वे भव्य हैं; उनसे विपरीत (जीव) वे वास्तवमें * भवन = परिणमन; होना सो। है जीव नाना, कर्म नाना लब्धि नाना विध कहीं। अतएव ही निज-पर समयके साथ वर्जित वाद भी ।। १५६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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